अगर अब तक आप ये जानते थे कि भारत ने स्वतंत्रता के लिए पहली लड़ाई 1857 में लड़ थी, तो आपको अपनी जानकारी को अपडेट करने की ज़रूरत है. क्योंकि सरकार ने आधिकारिक रूप से साल भर पहले इतिहास की किताबों में ये ओहदा 1817 में हुई पाइका क्रांति को देने शुरू कर दिया है. जी हां, अब पाइका क्रांति को स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई माना जाता है.

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ओडिशा की इस क्रांति ने ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिला दी थीं. दरअसल पाइका किसान वर्ग का एक सैन्य दल था जो गजपति शाषकों के लिए युद्ध भी लड़ता था. बदले में उसे राजा की ओर से कर में छूट और खेती करने के लिए ज़मीन मिलती थी. पाइका जाति के लोगों ने 1817 में बक्शी जगबंधु बिधाधर की अगुवाई में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ हथियार उठाए थे.

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बगावत की चिंगारी खुर्दा में भड़की थी. वहां के शासक जगन्नाथ मंदिर के संरक्षक माने जाते थे और जनता उन्हें भगवान का प्रतिनिधि मानती थी. बंगाल और मद्रास पर कब्ज़ा जमाने के बाद अंग्रेज़ ओडिशा के ओर बढ़ चुके थे. 1803 में ओडिशा भी उनके हाथ में था. तब के गजपति राजा मुकुंददेव द्वितीय अवयस्क थे और उनके संरक्षक जय राजगुरु द्वारा किए गए प्रतिरोध को बेरहमी से कुचल दिया गया था, उनके शरीर के जीते जी टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए.

अंग्रेज़ी राज में पाइका समुदाय से उसकी ज़मीन छीन ली गई, मनमाने कर लाद दिए गए. जिसे नाराज़ समाज ने अन्य समुदायों को संगठित कर अपने वंशानुगत मुखिया बक्शी जगबंधु के नेतृत्व में बगावत का बिगुल फूंका. इसकी शुरुआत तो एक ख़ास वर्ग के विद्रोह से हुई थी लेकिन धीरे-धीरे अन्य समुदाय के लोग जुड़ते गए.

तब का घुमसुर जो अब गंजम और कंधमाल ज़िले का हिस्सा है, वहां के 400 आदिवासियों के विद्रोह में जुड़ने के बाद उन्होंने खुर्दा से अंग्रेज़ों को खदेड़ दिया था. इसके बाद ब्रिटिश प्रतीकों के ऊपर सिलसिलेवार तरीके से हमले होते रहे. कार्यालयों और राजकोष को आग के हवाले कर दिया गया.

इस विद्रोह को आस-पास के ज़मींदारोँ, राजाओं और किसानों का समर्थन प्राप्त था. इसलिए इस आग के लपटें बहुत जल्द ही वहां भी पहुंच गईं. अचानक उठे इस विद्रोह ने अंग्रेज़ों को संभलने के मौका नहीं दिया. कई जगह अंग्रेज़ों को पीछे हटना पड़ा और कई जगहों पर घुटने टेकने पड़े. लेकिन तीन महीने के भीतर फिर से पूरी कहानी पलट गई और ब्रिटिश सेना पूरे ज़ोर से वापस आई और उन्हें जीत मिल गई.

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इसके बाद दमन का भयानक दौर चल पड़ा. कई विद्रोहियों को जेल में डाला गया, कई को विद्रोह की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. आम जनता भी अत्यचार की शिकार हुई. कुछ विद्रोही जो अंग्रेज़ों की पकड़ में नहीं आए थे, उन्होंने गुरिल्ला युद्ध लड़ना शुरू कर दिया. सेना के मुखिया ने 1825 में आत्मसमर्पण कर दिया और 1829 में क़ैद में ही उनकी मृत्यु हो गई.