खुदीराम बोस स्वतंत्रता संग्राम में शहीद होने वाले पहले क्रांतिकारी माने जाते हैं. खुदीराम 11 अगस्त, 1908 को मात्र 18 साल की उम्र में देश के लिए फ़ांसी पर चढ़ गए थे. उनकी इसी शहादत ने देशवासियों में आजादी की ललक पैदा की थी, जिससे स्वाधीनता संग्राम को मज़बूती मिली.

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खुदीराम बोस का जन्म पश्चिम बंगाल में मिदनापुर ज़िले के हबीबपुर गांव में हुआ था. साल 1905 बंगाल विभाजन के बाद खुदीराम बेहद कम उम्र में अंग्रेज़ों के विरुद्ध आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े थे.

खुदीराम स्कूली दिनों से ही राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ नारे लगाने व वंदेमातरम के पर्चे बांटते नज़र आते थे. नौवीं कक्षा के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और सत्येन बोस के नेतृत्व में अपना क्रांतिकारी जीवन शुरू कर दिया था. बाद में खुदीराम ‘रेवल्यूशन पार्टी’ के सदस्य बने.

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28 फरवरी, सन 1906 को ‘सोनार बांग्ला’ नामक एक इश्तहार बांटते हुए बोस को पुलिस ने पकड़ लिया था, लेकिन वो भागने में सफ़ल रहे. तीन महीने बाद 16 मई 1906 को वो एक बार फिर गिरफ़्तार हुए, लेकिन कम उम्र होने के कारण उन्हें केवल चेतावनी देकर छोड़ दिया गया.

स्वाधीनता आंदोलन के वक़्त कलकत्ता (कोलकाता) में किंग्सफ़र्ड चीफ़ प्रेजिडेंसी मैजिस्ट्रेट क्रांतिकारियों को तंग किया करता था. उससे तंग आकर क्रांतिकारियों ने उसकी हत्या का फ़ैसला किया. ‘युगांतर क्रांतिकारी दल’ के नेता वीरेंद्र कुमार घोष ने इस काम के लिए खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चंद को चुना.

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30 अप्रैल, 1908 बिहार के मुजफ़्फ़रपुर की एक शाम को किंग्सफ़र्ड अपनी पत्नी और बेटी के साथ क्लब पहुंचे. रात के साढे़ आठ बजे उनकी पत्नी और बेटी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ़ जा रहे थे. किंग्सफ़र्ड की बग्घी समझकर खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चंद ने उस पर बम फ़ेंक दिया जिसमें सवार मां-बेटी की मौत हो गई. दोनों ये सोचकर वहां से भाग निकले कि किंग्सफ़र्ड मारा गया. भागते-भागते दोनों पूसा रोड रेलवे स्टेशन पहुंचे, जिसे आज खुदीराम रेलवे स्टेशन के नाम से जाना जाता है.

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जब खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चंद पर पुलिस को शक हुआ, तो उन्हें घेर लिया गया. अपने को घिरा देख प्रफुल्ल चंद ने ख़ुद को गोली मार ली और खुदीराम पकड़े गए. इसके बाद उन पर हत्या का मुकदमा चला और उन्होंने अपने बयान में स्वीकार किया कि उन्होंने किंग्सफ़र्ड को मारने का प्रयास किया था, लेकिन उनकी पत्नी और बेटी ग़लती से मारे गए. पांच दिन मुकदमा चलने के बाद 8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया. 13 जून को उन्हें मौत की सजा सुनाई गई, जबकि 11 अगस्त, 1908 को उन्हें फ़ांसी पर चढ़ा दिया गया.

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खुदीराम की शहादत ने ऐसा कमाल किया कि देश में स्वतंत्रता संग्राम के शोले भड़क उठे. उस समय बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे, जिसके किनारे पर ‘खुदीराम’ लिखा था. स्कूल कॉलेजों में पढ़ने वाले बच्चे भी इन धोतियों को पहनकर सीना तानकर आज़ादी के रास्ते पर चल पड़े थे.

भारत के सबसे युवा क्रांतिकारी शहीद खुदीराम बोस की 106वीं पुण्यतिथि पर उनको हमारी तरफ से शत-शत नमन!