साल 1975 तक हिंदी सिनेमा अपनी ही धुन में चल रहा था. अच्छी फ़िल्में तो बन रही थी लेकिन दर्शकों को कुछ अलग देखने को नहीं मिल पा रहा था. फिर इसी साल एक चमत्कार हुआ जो रुपहले पर्दे पर पहले कभी नहीं हुआ था.
15 अगस्त 1975 को देशभर के सिनेमाघरों में ‘शोले’ फ़िल्म दिखाई गई. शुरुआती दिनों में फ़िल्म देखने वालों की भीड़ से लग रहा था कि फ़िल्म बनाने में जितने पैसे लगे हैं, उसका एक चौथाई भी वसूल कर ले तो बड़ी बात है. पहले तीन हफ़्ते तक ‘शोले’ देखने ज़्यादा लोग नहीं आए. एक ट्रेड मैगज़ीन ने तो लेख भी छाप दिया था कि ‘शोले’ क्यों फ़्लॉप हुई. इसी दौरान एक जुमला भी मशहूर हुआ कि तीन महारथी और एक चूहा (अमिताभ, धर्मेंद्र, अमजद और संजीव).
लेकिन फ़िल्म के डायरेक्टर रमेश सिप्पी को पूरी उम्मीद थी कि ये फ़िल्म इतिहास बनाएगी. हुआ भी कुछ ऐसा ही, फिल्म ने धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़नी शुरू की और फिर ऐसी रफ़्तार पकड़ी कि आज ‘शोले’ हिंदी फ़िल्म इतिहास की सबसे बेहतरीन फ़िल्मों की लिस्ट में टॉप पर है.
वैसे तो शोले का हर क़िरदार अपने आप में यादग़ार है. लेकिन इस फ़िल्म के असली हीरो तो ठाकुर यानि संजीव कुमार ही थे. भले ही लोग ‘शोले’ को जय-वीरू (अमिताभ-धर्मेंद्र) और गब्बर सिंह (आजाद ख़ान) की फ़िल्म समझते हों. लेकिन शोले का मास्टरमाईंड ठाकुर था. जय और वीरू को रामगढ़ लाना हो या फिर गब्बर सिंह को बार-बार चुनौती देना. संजीव कुमार ने अपनी लाज़वाब एक्टिंग से ठाकुर के किरदार को यादग़ार बना दिया.
प्रतिशोध की आग में जल रहा ठाकुर अपनी सोची-समझी साज़िश के तहत जय-वीरू को गब्बर के ख़ात्मे के लिए इस्तेमाल करता है. बिन हाथ का लाचार लगने वाला ठाकुर असल में सबसे ताकतवर होता है. ठाकुर पूरी कहानी को अपने हिसाब से चलाता है. डाकू गब्बर सिंह पर कब हमला करना है? उसे मारने की क्या रणनीति होगी? ये सब कुछ ठाकुर ही तय करता है. फ़िल्म देखने के बाद यही मालूम होता है कि असली हीरो जय-वीरू नहीं बल्कि ठाकुर है.
फ़िल्म में धर्मेंद्र, अमिताभ, अमज़द ख़ान, हेमा मालिनी और जया बच्चन जैसे बड़े-बड़े धुरंधर कलाकारों के होने के बावज़ूद संजीव कुमार अपनी शानदार अदाकारी से इन सभी को टक्कर देते हुए दिखाई दिए. अपने चेहरे के हाव-भाव से उन्होंने ठाकुर के किरदार में जान डाल दी थी. चाहे वो गब्बर के लिए बेपनाह नफ़रत हो, या फिर जय और वीरू के साथ गब्बर को मारने की प्लानिंग, संजीव कुमार लाजवाब दिखे.
संजीव कुमार शोले से पहले भी पुलिस अफ़सर के कई किरदार निभा चुके थे. इस लिए भी इस फ़िल्म में ठाकुर के क़िरदार के लिए रमेश सिप्पी की पहली पसंद संजीव कुमार ही थे. वो अक्सर अपने संजीदा अभिनय के लिए जाने जाते थे.
शोले में ठाकुर के कई आइकॉनिक डायलॉग भी थे:
ये हाथ नहीं… फ़ांसी का फंदा है
लोहा गरम है…मार दो हथौड़ा
क़ीमत जो तुम चाहो…काम जो मैं चाहूं
रामगढ़ वालों ने पागल कुत्तों के सामने रोटी डालना बंद कर दिया है
ठाकुर न झुक सकता है, न टूट सकता है…ठाकुर सिर्फ़ मर सकता है
इस फ़िल्म के बेहतरीन होने के पीछे बहुत से कारण हैं. जैसे सलीम-जावेद की शानदार कहानी, ज़बरदस्त डायलॉग, रमेश सिप्पी का लाजवाब डायरेक्शन, कलाकारों की बेहतरीन एक्टिंग और आर.डी. बर्मन का तड़कता- भड़कता संगीत. किसी भी अच्छी फ़िल्म को बेहतरीन बनाने के लिए इन्हीं चीज़ों की ज़रूरत होती है. इस फ़िल्म में वो सब कुछ था, जिसने इसे शानदार बनाया.
सलीम-जावेद ने इस फ़िल्म के हर किरदार को इतनी गहराई के साथ लिखा कि आज भी ‘शोले’ के हर किरदार को याद किया जाता है. जय-वीरू, ठाकुर, गब्बर, बसंती, सांभा, कालिया, मौसी, रामलाल, जेलर, अहमद, सूरमा भोपाली, इमाम साहब. जिसने भी एक बार फ़िल्म देखा इन क़िरदारों को कभी भूल नहीं पाया.