रमाबाई : महिलाओं के हक़ में लड़ने वाली पहली भारतीय महिला, जो थीं पितृसत्तात्मक सोच की घोर विरोधी

Nripendra

इतिहास गवाह है कि शुरू से ही महिलाओं की क्षमताओं को न सिर्फ़ कम आंका गया, बल्कि उनकी आवाज़ को भी दबाने का काम किया गया. चौंकाने वाली बात है कि आज भी देश की कई जगहों पर महिलाओं को घर की चारदीवारी में ही क़ैद करके रख दिया जाता है. शिक्षा, सुरक्षा व सम्मान के लिए महिलाएं आज भी लड़ रही हैं. कड़े क़ानून होने के बावजूद भी शारीरिक शोषण और घरेलू हिंसा जैसी शर्मनाक चीज़े थमी नहीं हैं. 

ये कुछ ऐसे गंभीर विषय रहे जिनकी वजह से ‘नारीवादी’ शब्द सामने आया. नारीवादी यानी महिलाओं के हक़ के लिए लड़ने वाली सोच. इसी क्रम में हम आपको मिलवाते हैं देश की पहली नारीवादी महिला से, जिन्होंने महिलाओं के आत्मसम्मान और उनके हक़ की लड़ाई लड़ी.   

पंडिता रमाबाई

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देश की पहली नारीवादी महिला का नाम था पंडिता रमाबाई. इनका जन्म (23 अप्रैल 1858) कर्नाटक के मराठी बोलने वाले हिंदू परिवार में हुआ. माना जाता है कि रमाबाई ने 1876–78 के दौरान आए अकाल में अपने माता-पिता को खो दिया था. तब उनकी उम्र मात्र 16 वर्ष की थी.   

नारीवादी और समाज सेविका  

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पंडिता रमाबाई को देश की पहिला नारीवादी महिला कहा जाता है. उन्होंने महिला शिक्षा और उनके अधिकार के लिए आवाज़ उठाई. साथ ही समाज सेवा के क्षेत्र में कई काम किए.  

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संस्कृत की प्रकांड विद्वान  

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रमाबाई के पिता (अनंत शास्त्री डोंगरे) संस्कृत के विद्वान थे. उन्होंने अपनी बेटी को घर में ही संस्कृत की पहली शिक्षा दी. वह संस्कृत विद्वान के रूप में ‘पंडिता की उपाधि’ से सम्मानित होने वाली पहली महिला बनीं.   

पब्लिक स्पीकिंग में थी महारत हासिल  

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पंडिता रमाबाई को पब्लिक स्पीकिंग में महारत हासिल थी. ये हुनर भी उन्होंने अपने परिवार से ही सीखा. वो अक्सर भारत के विभिन्न तीर्थ स्थलों पर पुराणों का पाठ करने जाया करती थीं. माता-पिता की मृत्यु के बाद भी उन्होंने अपना यह काम अपने भाई के साथ जारी रखा.   

पितृसत्तात्मक सोच की घोर विरोधी  

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आपको बता दें कि पंडिता रमाबाई पितृसत्तात्मक सोच की घोर विरोधी थीं. वो अक्सर जन सभाओं में पितृसत्तात्मक सोच की आलोचना करती थीं. कहा जाता है कि उन्हें पंडितों द्वारा सरस्वती कहा गया, लेकिन जैसे ही उन्होंने हिंदू धर्म छोड़ ईसाई धर्म अपनाया उन्हें विद्रोही कह दिया गया.   

दूसरी जाति में की शादी   

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पंडिता रमाबाई ब्राह्मण परिवार से संबंध रखती थीं, लेकिन उन्होंने शादी दूसरी जाति में की. उन्होंने एक बंगाली वकील विपिन बिहारी से शादी की थी. इस शादी का बहुत लोगों ने विरोध किया. वहीं, शादी के दो साल बाद उनके पति की मृत्यु हो गई.   

आर्य महिला समाज  

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कहा जाता है कि पति की मृत्यु के बाद रमाबाई पुणे में जाकर बस गई थीं. वहां उन्होंने ‘आर्य महिला समाज’ की स्थापना की और महिला शिक्षा के काम में लग गईं. इस संस्था ने बाल विवाह से जैसी प्रथाओं को रोकने का काम भी किया.   

इंग्लैंड में जाकर बनीं ईसाई   

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हिंदू धर्म छोड़ ईसाई बनना उनके जीवन का सबसे बड़ा निर्णय था. उन्होंने 29 सितंबर 1883 को अपनी बेटी संग Church of England में जाकर ईसाई धर्म अपनाया था. इसके अलावा, उन्होंने ईसाई धर्म का अध्ययन किया और अंग्रेज़ी की पढ़ाई भी की. कहा जाता है कि इन चीज़ों के बाद रमाबाई का बहुत विरोध भी किया गया. लेकिन, उन्हें ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले से काफ़ी समर्थन प्राप्त हुआ.   

स्वामी विवेकानंद से हुआ टकराव

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आपको जानकर हैरानी होगी कि पितृसत्तात्मक सोच की घोर विरोधी होने की वजह से वो एक बार स्वामी विवेकानंद से भी टकरा गईं थीं. कहते हैं कि जब स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में आयोजित किए गए ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में हिंदू धर्म को महान बताया, तो रमाबाई के अगुवाई में कई महिलाओं ने उनका विरोध किया और सवाल खड़े किए कि अगर आपका धर्म इतना महान है, तो वहां महिलाओं की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है.   

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कहते हैं कि स्वामी विवेकानंद की शिकागो में दिए गए भाषण की आलोचना करते हुए रमाबाई ने महिलाओं को लेकर काफ़ी कुछ लिखा. इसके बाद स्वामी विवेकानंद काफ़ी ग़ुस्सा हो गए थे और उन्होंने रमाबाई की बातों की आलोचना करते हुए लिखा था कि कोई भी व्यक्ति अपनी ओर से कितना प्रयास कर ले, मगर कुछ लोग उसे ख़राब ही बोलते हैं. शिकागो में मुझे कई बार ऐसा विरोध सहना पड़ा है.

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रमाबाई के नाम का डाक टिकट   

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रमाबाई की मृत्यु 5 अप्रैल 1922 को मुंबई में हुई थी. उनके काम की पूरे विश्व में सराहना की गई. वहीं, भारत सरकार ने उनके नाम का एक डाक टिकट भी जारी किया था. इसके अलावा, उनके द्वारा बनाया गया Mukti Mission आज भी काम कर रहा है.   

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