कहानी बिहार के उस सूरमा की जिसने अंग्रज़ों को हराने के लिये काट लिया था अपना हाथ

Akanksha Tiwari

हिंदुस्तान के इतिहास के बारे में जितना पढ़ें कम लगता है. इतिहास में कई सारे स्वतंत्रता सेनानी ऐसे थे, जिन्होंने देश के लिये अपने जान की आहुति दे दी. इन वीरों की कहानियां पढ़ कर लगता है कि वो दौर भी कैसा रहा होगा न. ख़ैर अच्छे और बुरे दिनों का आना-जाना लग रहता है. अगर कुछ रह जाता है, तो वो हैं यादें और बलिदान.

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आज भी हम आपको देश के एक ऐसे ही वीर की कहानी बतायेंगे, जिसने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ न सिर्फ़ युद्ध लड़ा, बल्कि अंग्रेज़ों को ज़बरदस्त पटखनी भी दी. ये कहानी है बिहार के सूरमा कह जाने वाले बाबु वीर कुंवर सिंह की. 80 साल की उम्र में वीर कुवंर सिंह ने जो कारनामा किया, उसने सबके होश उड़ा दिये थे. 80 साल की उम्र में जब लोग आराम करते हैं, तब कुंवर सिंह युद्ध के मैदान में अंग्रेज़ों की शानदार तरीक़े से मुंह तोड़ जवाब दे रहे थे. ये बात 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की है.  

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जांबाज़ वीर कुंवर सिंह का जन्म 1777 में बिहार के भोजपुर ज़िले के जगदीशपुर गांव में हुआ था. वो बचपन से ही निशानेबाज़ी, घुड़सवारी और तलवारबाज़ी सीखने में दिलचस्पी रखते थे, जो कि बिल्कुल भी आम बात नहीं थी. इसके साथ ही उन्होंने मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग भी ली थी. ऐसा कहा जाता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज के बाद वो दूसरे भारतीय योद्धा वही थे. वो गोरिल्ला युद्ध नीति के जानकार भी थे. इसी नीति के ज़रिये उन्होंने अंग्रेज़ों को एक बार नहीं, बल्कि रण युद्ध में कई बार हराया.  

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भारतीय योद्धा को उनकी बदलती नीति के लिये भी जाना जाता है. 20 अप्रैल 1858 की बात है. आजमगढ़ का युद्ध ख़त्म करने के बाद वो मन्नोहर गांव पहुंचे. 22 अप्रैल को वो नदी के रास्ते से होते हुए जगदीशपुर के लिए निकल गये. इस बात की ख़बर अंग्रेज़ों को लग चुकी थी. मौक़ा देखते ही अंग्रेज़ों ने रात में नदी में गोलियां चलानी शुरू कर दीं. एक गोली कुंवर सिंह के हाथ में जा लगी.  

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गोली से ज़हर पूरे शरीर में न फैल जाये इसलिये कुंवर ने तलवार से हाथ काट कर नदी में फेंक दिया. उस समय उनके पास ज़्यादा सैनिक भी नहीं थे. वो चाहते, तो जान बचाने के लिये युद्ध में हार मान सकते थे, लेकिन वीर कहां रुकने वाले थे. वो अंतिम समय तक अंग्रेज़ों से लड़ते रहे. उनकी वीरता ने अंग्रेज़ों को भी घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया और आखिरकार उन्होंने जगदीशपुर को वापस पा ही लिया.  

वीर कुंवर साहसिक जीत के लिये ख़ुशी थी, लेकिन साथ ही युद्ध में दिये गये उनके बलिदान का ग़म भी था.  

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