कहानी गढ़वाल के गब्‍बर सिंह की, जिसने 20 साल की उम्र में जर्मनी के 350 सैनिकों को बंदी बनाया था

Akanksha Tiwari

उत्तराखंड सिर्फ़ एक देवभूमि नहीं है, बल्कि शहीदों की भूमि भी है. इतिहास इस बात का गवाह है. देश पर जब-जब विपदा आई, गढ़वाल के सैनिकों ने अपनी जान तक कुर्बान कर डाली है. इन्हीं वीर सैनिकों में शहीद गब्‍बर सिंह नेगी का नाम भी आता है. शहीद की वीरता के कारण ही गढ़वाल को लैंड ऑफ़ गब्‍बर सिंह के नाम से भी जाना जाता है.

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गढ़वाल के वीर शहीद की कहानी 

राफ़इलमैन गब्‍बर सिंह नेगी गढ़वाल के गांव मंजयूड के रहने वाले थे. देश के लिये कुछ करने का जज़्बा लेकर वो 1913 में गढ़वाल राइफ़ल्‍स में शामिल हो गये. नौकरी के दौरान पहला विश्व युद्ध छिड़ा और ब्रिटिश इंडियन आर्मी की तरफ़ से उन्हें 1914 में फ़्रांस भेज दिया गया.

कम उम्र में देश के लिये दे दी जान

सोचिये जिस उम्र में हम कॉलेज लाइफ़ एंजॉय करते हैं, उस उम्र में वीर गब्बर सिंह ने देश के लिये अपनी जान दे दी. प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था. बटालियन द्वितीय गढ़वाल राइफ़ल की कमान गब्बर सिंह को दी थी. अब गब्बर सिंह को अपनी सेना के साथ मिल जर्मन सेना को हराना था. युद्ध के मैदान में जर्मन सेना को हराना आसान नहीं था. पर उन्होंने हिम्मत से काम लिया और जर्मनी सेना के लगभग 350 सैनिकों को बंदी बना लिया. यही नहीं, देश के बहादुर सैनिक ने जर्मनी की लोकप्रिय न्यू शैपल लैंड पर अधिकार भी जमा लिया था.
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युद्ध में अपनी शौर्यता दिखाते हुए 1915 में वो महज़ 20 साल की उम्र में देश के लिये कुर्बान हो गये. कम उम्र में उन्होंने देश के लिये जो जोश और हिम्मत दिखाई, वो हर किसी के बस की बात नहीं थी. युद्ध के मैदान में उनकी होशियारी और बहादुरी सबको चकित कर गई. इसलिये उनकी वीरता ने अंग्रेज़ों को भी हैरान कर दिया था.  

आज भी उत्तराखंड के गढ़वाल में बच्चों को प्रेरित करने के लिये घर-घर वीर सैनिक की कहानियां सुनाई जाती हैं. 1925 में उनकी याद में गढ़वाल राइफ़ल द्वारा एक मेमोरियल भी बनाया था. वीरगति को प्राप्त होने वाले शहीद गब्बर सिंह को विक्‍टोरिया क्रॉस सम्मान से भी नवाज़ा गया था. आपको बता दें कि ये ब्रिटेन की तरफ़ से मिलने वाला सबसे बड़ा सम्मान है.

कम उम्र में देश के लिये जान की बलि देने वाले शहीद को नमन!

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