कहानी युवा क्रांतिकारी खुदीराम बोस की, जो बेख़ौफ़ हाथ में गीता लिए चढ़ गया फांसी की वेदी पर

Kratika Nigam

Khudiram Bose: भारत माता को अंग्रेज़ों की बेड़ियों से आज़दी दिलाने के लिए कई मां के लाल ने अपनी जान क़ुर्बान कर दी है. इन सभी हंसते-हंसते अपने प्राण न्योछावर कर दिये और माथे पर एक शिकन भी नहीं आई. शहीद भगत सिंह जिनके लिए आज़ादी ही उनकी दुल्हन थी. वैसे ही और भी कई थे जो सिर्फ़ आज़ादी दिलाना चाहते थे, जिन्होंने लोगों को आज़ाद भारत का सपना दिखाया और उसके लिए पूरी लगन से लगे भी रहे. चंद्रशेखर आज़ाद, सुखदेव, राजगुरु, अशफ़ाक़उल्ला ख़ां के अलावा खुदीराम बोस (Khudiram Bose) भी थे, जिन्होंने देश की आज़ादी में अपने प्राण न्योछावर कर दिये. कुछ इतिहासकारों की मानें तो, खुदीराम बोस देश के लिए फांसी पर चढ़ने वाले सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी थे.

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आइए, स्वतंत्रता सेनानी खुदीराम बोस (Freedom Fighter Khudiram Bose) के बारे में विस्तार से जानते हैं कि जब उन्हें फांसी लगी तो वो कितनी उम्र के थे?

क्रांतिकारी खुदीराम बोस का जन्म बंगाल में मिदनापुर के हबीबपुर गांव में 3 दिसंबर 1889 को हुआ था. खुदीराम बहुत छोटे थे जब इनके माता-पिता का निधन हो गया. तब से इनका पालन-पोषण इनकी बड़ी बहन ने किया. इनके क्रांतिकारी जीवन के बारे में जानने से पहले इनके नाम से जुड़ी ये कहानी जान लेते हैं क्योंकि इनके नाम के पीछे की कहानी काफ़ी रोचक है. दरअसल, खुदीराम से पहले उनके दो भाइयों की बीमारी के कारण मृत्‍यु हो गई थी. इसलिए, इनके माता-पिता अपने तीसरे बेटे खुदीराम के जन्म से पहले बहुत दुखी और डरे हुए थे. तो एक टोटका करते हुए खुदीराम की बहन ने जन्म से उन्हें चावल देकर ख़रीद लिया. बंगाल में चावल को खुदी कहते हैं. इसलिए चावल के बदले लेने की वजह से इनका नाम खुदीराम रखा गया.

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बचपन से ही देश को आज़ाद कराने के जुनून के चलते खुदीराम ने 9वीं कक्षा में ही पढ़ाई छोड़ दी और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए. 1905 में जब बंगाल का विभाजन हो गया तब खुदीराम बोस ने अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत सत्‍येंद्रनाथ बोस के नेतृत्‍व में की और रिवॉल्‍यूशनरी पार्टी के सदस्‍य बन गए. खुदीराम बोस वंदेमातरम् के पर्चे बांटने लगे जिसके चलते उन्हें पहली बार 28 फरवरी 1906 को गिरफ़्तार किया गया लेकिन भाग निकले. इसके दो महीने बाद फिर गिरफ़्तार किया गया फिर 16 मई 1906 को चेतावनी देकर जेल से रिहा कर दिया गया.

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खुदीराम बोस को जब पहली बार पकड़ा गया तो उस समय ज़िला जज डगलस किंग्सफ़ोर्ड (Douglas Kingsford) हुआ करता था, जो भारतीयों को कोड़े मारने की सज़ा सुनाता था. इसलिए सभी भारतीय क्रांतिकारी उससे सख़्त नफ़रत करते थे. उसने 15 साल के खुदीराम को भी 15 कोड़े मारने की सजा सुनाई थी. इसके चलते, सभी क्रांतिकारियों ने जज डगलस को मारने की योजना बनाई, जिसकी ज़िम्मेदारी खुदीराम और उनके साथियों को दी गई. खुदीराम बोस और उनके दोस्त क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी ने डगलस को मारने के लिए पार्सल बम भेजा, ये दोनों वो पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने डगलस के लिए बम भेजा था. मगर डगलस ने पार्सल नहीं खोला उस पार्सल को एक कर्मचारी ने खोला और वो घायल हो गया.

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जज डगलस ने इस हमले के बाद अपना ट्रांसफ़र बंगाल की जगह बिहार के मुजफ़्फ़रपुर में ले लिया. तब खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को भी युगांतकारी संगठन की मदद से पिस्तौल और कारतूस देकर बिहार भेज दिया गया. दोनों 18 अप्रैल 1908 को मुजफ़्फ़रपुर पहुंच गए वहां पहुंचकर दोनों डगलस पर नज़र रखने लगे. मगर डगलस की सुरक्षा बढ़ा दी गई. इसलिए दोनों ने डगलस को मारने के लिए स्टेशन क्लब जाने वाला वक़्त चुना जहां वो अपनी पत्नी के साथ जाता था.

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30 अप्रैल 1908 को शाम साढ़े 8 बजे डगलस जब अपनी बग्घी में निकला तो बग्घी जब घर वापस आई दोनों ने उसी वक़्त बम फेंक दिया लेकिन इस बार भी डगलस बच गया क्योंकि वो बग्घी डगलस की नहीं, बल्कि उनके साथ चलने वाली दो महिलाओं की थी जिसमें एक महिला मर गई और दूसरी बच गई. हमले के बाद, खुदीराम और प्रफुल्ल अलग-अलग चले गए और कलकत्‍ता में मिलना तय किया.

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इसके बाद, घोषणा की गई कि जो भी डगलस पर हमला करने वालों का पता बतायेगा उसे 5 हज़ार रुपये का इनाम दिया जाएगा. प्रफुल्ल चाकी ने पकड़े जाने के दौरान ख़ुद को गोली मारकर शहादत दे दी तो वहीं जब खुदीराम को 1 मई 1908 को वैनी रेलवे स्टेशन पर अंग्रेज़ सिपाहियों ने गिरफ़्तार किया तो उनके पास 37 कारतूस और 30 रुपये मिले.

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पकड़े जाने के बाद खुदीराम बोस को मुजफ़्फ़रपुर की ज़िला अदालत लाया गया. उन्हें हत्या का दोषी मानकर अपर सत्र न्यायाधीश एचडब्ल्‍यू कॉर्नडफ़ की अदालत में 1 महीने तक मुक़दमा चला. इसके बाद, अदालत ने खुदीराम बोस को फांसी की सजा सुनाई. खुदीराम बोस की तारीफ़ में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कई लेख लिखे थे.

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जज कॉर्नडॉफ़ की अदालत में सज़ा सुनाने से पहले जज ने खुदीराम से सवाल किया कि क्या तुम फांसी की सज़ा का मतलब जानते हो? तो खुदीराम ने जवाब दिया कि,

इस सज़ा और मेरे वक़ील साहब की दलील दोनों का मतलब मुझे पता है. अच्छी तरह से जानता हूं. मेरे वक़ील साहब ने कहा है कि मैं अभी कम उम्र हूं इसलिए मैं बम नहीं बना सकता. जज साहब, मेरी आपसे गुजारिश है कि आप ख़ुद मेरे साथ चलें. मैं आपको भी बम बनाना सिखा दूंगा.

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मुजफ़्फ़रपुर की अदालत ने खुदीराम बोस को फांसी की सज़ा सुनाने के बाद ऊपरी अदालत में अपील करने का वक़्त दिया लेकिन ऊपरी अदालत ने मुजफ़्फ़रपुर अदालत के फ़ैसले को ही आख़िरी मानकर मुहर लगा दी. खुदीराम बोस को 11 अगस्‍त 1908 को मुजफ़्फ़रपुर जेल में फांसी दी गई. फांसी के वक़्त खुदीराम की उम्र महज़ 18 साल 8 महीने और 8 दिन थी और वो हाथों में गीता लेकर बेख़ौफ़ फांसी पर चढ़ गए थे.

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इनकी फ़ासी के बाद छात्रों से लेकर बड़ी संख्‍या में लोगों ने कई दिन तक शोक मनाया. यहां तक कि, स्‍कूल और कॉलेज भी बंद रखे गए. इसी दौरान, बंगाल के जुलाहों ने एक धोती बनाई, जिसके किनारों पर खुदीराम बोस लिखा था. इस धोती को सैकड़ों-हज़ारों युवाओं ने ख़रीदा और पहना. उस वक़्त ज़्यादातर युवा इसी धोती को पहने नज़र आते थे.

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