शनिवार वाड़ा : मराठाओं का वो ऐतिहासिक क़िला जहां अब भूत-प्रेतों ने डाल रखा है डेरा

Nripendra

भारत को वीरों की भूमि कहा जाता है. इतिहास के अनगिनत पन्ने वीर-गाथाओं से भरे पड़े हैं. इनमें मराठाओं का नाम बड़े ही गर्व से लिया जाता है. वीर मराठा शासकों ने बाहरी ताक़तों का जमकर सामना किया था और भारतीय भूमि की रक्षा की थी. आज भी इनके बनाए मज़बूत क़िले मराठा इतिहास की शौर्य गाथा गाते दिखाई देते हैं. लेकिन, मराठा इतिहास से जुड़े कई ऐसे अध्याय हैं, जिनके बारे में ज़्यादा लोगों को नहीं पता. 

भले ही आपको जानकर हैरानी हो, लेकिन यह हक़ीक़त है कि मराठाओं द्वारा बनाए कुछ क़िले भूत-प्रेतों का अड्डा बन चुके हैं. एक ऐसे ही भुतहा क़िले ‘शनिवार वाड़ा’ के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं, जिसकी की एक घटना ने इसे भूतों का अड्डा बना दिया.   

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बाजीराव का क़िला    

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यह ऐतिहासिक क़िला महाराष्ट्र के पुणे शहर में खड़ा है. इसका निर्माण 1746 में मराठा साम्राज्य के पेशवा बाजीराव ने करवाया था. इस विशाल क़िले का निर्माण मराठाओं के ‘East India Company’ पर नियंत्रण हटने और आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद करवाया गया था.   

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नाम के पीछे की कहानी    

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माना जाता है कि इस विशाल क़िले की नींव शनिवार के दिन रखी गई थी, जिस वजह से इसका नाम शनिवार वाड़ा पड़ा.

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सुरक्षा के लिहाज़ से किया गया था निर्माण   

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इस विशाल क़िले की निर्माण आक्रमणकारियों से सुरक्षा के लिहाज़ से करवाया गया था. क़िले में प्रवेश करने के लिए पांच विशालकाय दरवाज़ों का निर्माण करवाया गया था. जानकर हैरानी होगी कि इन दरवाज़ों को अलग-अलग नाम रखे गए थे, जैसे मुख्य दरवाज़े का नाम ‘दिल्ली दरवाज़ा’ रखा गया, क्योंकि इसका मुंह उत्तर की तरफ़ है. सुरक्षा के लिए इस दरवाज़े पर 12 इंच लंबे 72 किले लगवाए गए थे. दूसरे दरवाजे का नाम है ‘मस्तानी दरवाज़ा’ रखा गया, जो बाजीराव की पत्नी मस्तानी के इस्तेमाल के लिए था.

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वहीं, पूर्व की दिशा वाला दरवाज़ा ‘खिड़की दरवाज़ा’ के नाम से जाना गया, क्योंकि इसमें खिड़की बनी हुई है. चौथा दरवाज़े का नाम ‘गणेश दरवाज़ा’ रखा गया, जो दक्षिण-पूर्व दिशा में खुलता है. इसके अलावा, पांचवा दरवाज़े को ‘नारायण और जंभूल दरवाज़ा’ नाम दिया गया, जहां से दासियां क़िले में प्रवेश करती थीं. ये दरवाज़ा दक्षिण दिशा में खुलता था.   

आधा जला क़िला     

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जानकर हैरानी होगी कि वर्तमान में यह ऐतिहासिक क़िला आधी-जली स्थिति में मौजूद है. माना जाता है कि अज्ञात आक्रमणकारियों ने इस क़िले में आग लगा दी थी, जिसकी वजह से क़िले की कई मुख्य चीज़े नष्ट हो गई थीं. आज भी क़िले को आधी जली स्थिति को देखा जा सकता है.   

रहस्यमयी इतिहास   

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जानकर हैरानी होगी कि क़िले का अपना एक रहस्यमयी इतिहास भी है. कहा जाता है कि एक षड्यंत्र के तहत नानासाहेब पेशवे के छोटे पुत्र नारायण राव को मौत के घाट उतार दिया गया था. इतिहास के पन्ने बताते हैं कि दोनों भाइयों (विश्वास राव और माधवराव) की मृत्यु के बाद नारायण राव को बहुत ही कम उम्र में पेशवा बना दिया गया था. लेकिन, सत्ता का संचालन चाचा रघुनाथ राव और उनकी पत्नी आनंदी के हाथों में था.   

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चाचा रघुनाथ राव और उनकी पत्नी किसी भी तरह सत्ता पाना चाहते थे. इसलिए, उन्होंने नारायण राव की मौत का षड्यंत्र रचा. षड्यंत्र के तहत भील सरदार सुमेर सिंह गर्दी को पत्र लिखकर बुलवाया गया. इसके बाद सुमेर सिंह गर्दी ने नारायण राव पर क़िले के अंदर ही आक्रमण कर दिया. माना जाता है कि अपनी जान बचाने के लिए नारायण राव क़िले के अंदर ही भागते रहे. भागते हुए वो कह रहे थे “काका मला वाचवा” यानी “चाचा मुझे बचाओ”. नारारण राव को क़िले के अंदर ही मार दिया गया.  

भटकती है पेशवा की आत्मा   

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कहा जाता है कि इस क़िले में नारायण राव पेशवा की आत्मा भटकती है. कई लोगों का कहना है कि क़िले के अंदर से रोने व चीखने-चिल्लाने की आवाज़े सुनाई देती हैं. इसके अलावा, जानकार कहते हैं कि “काका मला वाचवा” जैसा भी यहां सुना गया है. यही वजह है कि यहां शाम के बाद कोई नहीं भटकता.   

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