हिंदी सिनेमा के पितामह यानि दादासाहब फाल्के ने सिनेमा के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया था. उनके अतुलय योगदान को सम्मानित करने के लिए ही 1969 में भारत सरकार की ओर से इस वार्षिक पुरस्कार की शुरुआत की गई. आज दादासाहब फाल्के एक बहुत ही बड़ा, सम्मानित और ऊंचा नाम है, लेकिन एक दौर वो भी था जब दादासाहब ने अपना सबकुछ दाव पर लगा दिया था. हिंदी सिनेमा को पहली मूक फ़िल्म,देने वाले दादासाहब ने कैसे इस फ़िल्म को बनाया वो बहुत ही दिलचस्प और प्रेरणादायक है.
धुंडिराज गोविन्द फालके यानि दादासाहब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र के नासिक में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. बचपन से ही कला और साहित्य में रुचि होने के चलते 1885 में उनकी पढ़ाई जेजे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स और 1890 में बड़ौदा के कला भवन में हुई. दादासाहब ने स्कूल में पढ़ाई करने के अलावा फ़ोटोग्राफ़ी, अभिनय, मोल्डिंग, इंग्रेविंग, पेंटिंग, ड्रॉइंग, आर्किटेक्चर, संगीत आदि भी सीखा.
दादासाहब सारी कलाओं में निपुण होने के साथ-साथ शौकिया जादूगर भी थे. पढ़ाई पूरी करके जब वो स्कूल से निकले तो उन्होंने अपने एक दोस्त के साथ लक्ष्मी आर्ट प्रिंटिंग प्रेस खोली. इसी में वो अपनी सारी कलाओं का इस्तेमाल करने लगे, लेकिन जब उन्हें एहसास हुआ कि अपनी प्रिंटिंग प्रेस को एक नया आयाम देना है तो वो 1909 में नई प्रिंटिंग प्रेस लेने के लिए जर्मनी चले गए. जर्मनी से वापस आने के बाद उनके दोस्त से उनकी लड़ाई हो गई और उन्होंने प्रिंटिंग प्रेस छोड़ के साथ-साथ सबकुछ छोड़ दिया और बैरागी का जीवन जीने लगे.
साल 1911 दादासाहब फाल्के के जीवन में नया मोड़ लेकर जब आया उन्होंने फ़िल्म ‘द लाइफ़ ऑफ़ क्राइस्ट’ देखी. इन्हें जादू की ये दुनिया भा गई और वो समझ गए कि लोगों तक बात पहुंचाने का ये बहुत अच्छा माध्यम है. कहानी जीसस क्राइस्ट की थी, जिसमें दादासाहब फाल्के ने हिंदुओं के देवी देवताओं को रखकर कई कहानियां अपने मन गढ़ ली. वो समझ गए थे कि करना तो अब यही है. इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी से कुछ पैसे उधार लिए और पहली मूक फ़िल्म बनाई.
वादों और इरादों के पक्के दादासाहब फाल्के ने जब फ़िल्म बनाने के बारे में सोचा वो दौर अंग्रेज़ों का दौर था और उस समय फ़िल्म बनाने में बहुत बड़ी पूंजी लगती थी. इसलिए उन्होंने इंग्लैंड के अख़बारों, मैगज़ीनों के एडिटर के साथ-साथ वहां के कुछ दोस्तों को अपना साथी बनाया और एक स्वदेशी फ़िल्म बनाने का काम शुरु किया. इस फ़िल्म को शुरू करने पर दादासाहब की सारी पूंजी लग गई, यहां तक रात-दिन काम करने के चलते इनकी आंखों की रौशनी भी काफ़ी कम हो गई.
दादासाहब ने फ़िल्म बनानी तो शुरू कर दी, लेकिन अपनी कला की परीक्षा लेने की भी सोचे. तब उन्होंने लंदन जाने का निश्चय किया ताकि वो वहां से सारा सामान और उपकरण लाने के साथ-साथ अपनी कला का भी निरीक्षण कर लें क्योंकि वो कहीं न कहीं सोच रहे थे अगर उन्होंने काम शुरू कर दिया तो क्या वो उसे पूरा कर पाएंगे? वो इंग्लैंड के लिए रवाना हुए और अपनी जीवन बीमा की पूरी पूंजी इसी में लगा दी.
इंग्लैंड पहुंचते ही सबसे पहले दादासाहब फाल्के ने ‘Bioscope Cine-Weekly’ पत्रिका की होर्डिंग देखी और उसके मेंबर बन गए. साथ ही उन्होंने इस पत्रिका के संपादक मिस्टर केपबर्न से भी मुलाक़ात की और दादासाहब के मिलनसार व्यवहार के चलते दोनों जल्दी दोस्त बन गए, जब केपबर्न को दादासाहब का इंग्लैंड आने का मकसद पता चला तो उन्होंने उन्हें एक बेहतरीन कैमरा और एक प्रिंटिंग मशीन ख़रीदने के साथ-साथ कुछ और इक्विपमेंट भी ख़रीद के दिए. इसके अलावा उन्होंने दादासाहब को वॉल्टन स्टूडियोज़ के निर्माता सिसल हेपवर्थ से भी मिलवाया. हेपवर्थ ने दादासाहब को अपनी पूरा स्टूडियो दिखाया और उनकी मदद करने का वादा किया.
दादासाहब तीन महीने के बाद इंग्लैंड से अपनी परीक्षा में पास होकर और अपनी फ़िल्म के लिए ज़रूरी सामान लेकर वापस तो आ गए थे, लेकिन उनके पास पैसा नहीं था. इसलिए उन्होंने फ़ाइनेंसर जुटाने के लिए एक शॉर्ट फ़िल्म ‘मटर के पौधे का विकास’ बनाई. फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद दादासाहब को फ़ाइनेंसर मिल चुके थे.
फिर दादासाहब ने फ़िल्म बनाना शुरू किया. इसके लेखक, निर्माता, निर्देशक, कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर, लाइटमैन और कैमरा मैन सब वही थे. इनके साथ-साथ उनकी बीवी, बच्चे और फ़िल्मों से अनभिज्ञ लोगों ने भी काम किया. फ़िल्म तो बन गई थी, लेकिन इसे लोगों के बीच पॉपुलर कराना मुश्क़िल था, क्योंकि उस समय नाटकों का चलन था और लोग दो आने में 6 घंटे का नाटक देखते थे. फिर 3 आने ख़र्च कर एक घंटे की फ़िल्म क्यों देखते? लेकिन दादासाहब भी हार मानने वालों में से नहीं थे,उन्होंने दर्शकों को आकर्षित करने के लिए सिर्फ़ तीन आने में 57 हजार चित्र की दो मील लंबी फ़िल्म बनाई, जो ‘राजा हरिश्चंद्र’ का विज्ञापन था. इस तरह से इसे 3 मई 1913 को कोरोनेशन सिनेमा बॉम्बे में रिलीज़ किया गया. इस तरह से बनीं थी भारत की पहली मूक फ़िल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’
पहली फ़िल्म होने के चलते ये लोगों में कौतूहल का केंद्र भी बनी हुई थी. इसलिए देश के अलग-अलग हिस्सों में इसकी मांग हो रही थी. इसकी एक ही कॉपी होने के चलते दादासाहब को फ़िल्म हर जगह लेकर घूमनी पड़ती थी.
इसके अलावा, बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दादासाहब फाल्के ने महिलाओं को भी फ़िल्मों में काम करने का अवसर दिया. इनकी फ़िल्म ‘भस्मासुर मोहिनी’ में दो महिलाओं मे काम किया था, जिनमें एक का नाम दुर्गा और दूसरी का कमला था.
ग़ौरतलब है कि इस पुरस्कार से सबसे पहले देविका रानी चौधरी को सम्मानित किया गया था. अब तक बॉलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन, मरहूम दिग्गज अभिनेता दिलीप कुमार से लेकर ऋषिकेश मुखर्जी, मजरुह सुल्तानपुरी, पृथ्वीराज कपूर, आशा भोंसले, यश चोपड़ा, कवि प्रदीप, मृणाल सेन, श्याम बेनेगल सहित कई दिग्गजों को भी इससे सम्मानित किया जा चुका है.
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दादासाहब की आख़िरी फ़िल्म एक मूक फ़िल्म थी, जिसका नाम ‘सेतुबंधन’ था. भारतीय सिनेमा के जन्मदाता दादासाहब ने 16 फरवरी 1944 को अंतिम सांस लेने के साथ-साथ कला और रंगमंच दोनों को अलविदा कह दिया.