फ़िल्म रिव्यु: घर में अकेली 2 साल की बच्ची की मासूमियत और उसके लिए होने वाली फ़िक्र की कहानी है पीहू

Ravi Gupta

पीहू एक ऐसी फ़िल्म है, जिसमें पूरे डेढ घंटे आप सिर्फ़ इसी फ़िक्र में होते हैं कि कहीं बच्ची को कुछ हो न जाए. आप सोचते हैं कि कहीं वो कुछ ग़लत न कर बैठे. पूरी फ़िल्म में आपके हाथ फ़िक्र से कभी बालों में जाते हैं, तो कभी सीट पकड़ते हैं. जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती है, आप पीहू से बात करने लगते हैं.

Pihu

फ़िल्म शुरू होती है एक कार्टून प्ले से. जहां स्क्रीन पर कार्टून चल रहे हैं और पीहू का बर्थडे सेलिब्रेट हो रहा है. तभी एक सीन आता है जिसमें पीहू सोकर उठी है और उसके बराबर में उसकी मां है, जिसने ज़हर खा लिया है. पीहू को लगता है कि उसकी मां सो रही है. पीहू अपनी मम्मी को उठाने की कोशिश में रहती है रहती है, न सुनने पर मम्मी को नोंचती है. बहुत ज़्यादा भूख लगने मां का दूध पीने की कोशिश करती. वो सभी चीज़ें करती है जिससे मम्मी उठ जाए. फ़िल्म में एक सीन है जिसमें पीहू अपनी मम्मी को उठाने के लिए टीवी पर उसका फ़ेवरेट सीरियल, ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ लगा देती है और अपनी बोलती है, आपका फ़ेवरेट सीरियल आ रहा है.

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फ़िल्म आपको टेंशन में तब लाती है जब पीहू छज्जे की रेलिंग पर झूल जाती है, जब वह फ़्रिज के अंदर बंद हो जाती है, जब उसका हाथ गर्म प्रेस से छू जाता है. जब घर में पानी-पानी हो जाता है और वहां बिजली की तारें भी हैं. जब गैस के सारे स्टोव से आग निकल रही होती है. यानि घर की वो सारी चीज़ें, जिनसे हम बच्चों को दूर रखते हैं.

फ़िल्म की कहानी

पीहू का बर्थडे है लेकिन ऑफ़िस के काम की वजह से पीहू के पिता यानि गौरव टाइम से घर नही पहुंच पाते. जिसके बाद पीहू के पिता औऱ उसकी मां (पूजा) का झगड़ा होता है. पीहू की मां को लगता है कि उसके पति का चक्कर उसी की दोस्त मीरा के साथ है. झगड़े में गौरव पूजा से यह बोलकर चला जाता है कि वो तभी घर वापस आएगा जब वो मर जाएगी. रोज़-रोज़ के झगड़ों से तंग आकर पूजा ज़हर खा लेती है. अब घर में सिर्फ़ 2 लोग हैं. 2 साल की पीहू और उसकी मरी हुई मां.

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एक्टिंग

फ़िल्म में स्क्रीन पर सिर्फ़ 2 ही कैरेक्टर दिखते हैं. एक मां जो कि मर चुकी है और दूसरी पीहू. पूरी फ़िल्म को सिर्फ़ पीहू यानि मायरा विश्वकर्मा ने ही प्ले किया है. 2 साल की बच्ची की एक्टिंग इतनी शानदार है कि आप फ़िल्म में पूरी तरह बंधे रहते है.

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स्क्रीनप्ले एंड डायरेक्शन

अगर डेढ घंटे के फ़िल्म को सिर्फ़ एक छोटी सी 2 साल की बच्ची पूरी तरह से बांध कर रखती है, तो इस बात में कोई 2 राय नहीं होगी बच्ची की एक्टिंग के अलावा फ़िल्म का स्क्रीनप्ले और डायरेक्शन बहुत अच्छा होगा. डायरेक्टर विनोद कापड़ी ने जिस तरह से फ़िल्म को सिर्फ़ एक घर के अंदर डायरेक्ट किया है, वो वाकई तारीफ़-ए-काबिल है. अच्छे डायरेक्शन का इस बात से भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि विनोद कापड़ी ने उन छोटे-छोटे पल को भी दिखाया है, जो अमूमन हमारे साथ हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में होते हैं. 

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