गोरखपुर का वो ‘चुप-चुप रहने वाला लड़का’, जो बॉलीवुड के Experimental सिनेमा का क्रांतिकारी चेहरा बन बैठा

Vishu

‘आपको ये समझना होगा कि आप एक ऐसे प्रोफ़ेशन में घुसने की कोशिश कर रहे हैं, जहां कोई आपको नहीं चाहता. आपका जो विज़न है, जो नज़रिया है उन फ़िल्मों को लेकर किसी में दिलचस्पी नहीं है. फ़िल्ममेकिंग एक ऐसा प्रोफ़ेशन है जहां आपको अपने सपनों के लिए किसी और के पैसों का मोहताज होना पड़ता है. आपको अपनी फ़िल्मों की पूरी ज़िम्मेदारी खुद लेनी होती है. ऐसी स्थितियां भी आएंगी, जहां लगेगा कुछ काम नहीं करेगा, लेकिन इसके बावजूद अगर आप चाहें तो सब कुछ हो सकता है.’

अनुराग कश्यप. बॉलीवुड में मॉर्डन, इंडीपेन्डेन्डेंट फ़िल्मों के पोस्टर ब्वॉय. अपनी डार्क, कैरेक्टर बेस्ड कहानियों से न केवल उन्होंने अपना ख़ुद का एक दर्शक वर्ग गढ़ा है, बल्कि अपने प्रोडक्शन हाउज़ की मदद से कई उभरते फ़िल्मकारों के गॉडफ़ॉदर भी साबित हो रहे हैं.

जब एक फ़िल्म फ़ेस्टिवल ने बदला था सोचने का नज़रिया 

koimoi

गोरखपुर में जन्मे अनुराग बचपन में लोगों से ज़्यादा घुल-मिल नहीं पाते थे. इस पर प्राइवेट स्कूल में उनके सहपाठी अंग्रेज़ी में बातें करते, ऐसे में उनका काफ़ी समय लाइब्रेरी में बीतने लगा. वे गृहशोभा, सरिता, मनोहर कहानियां जैसी किताबों को भी उसी चाव से पढ़ते, जितना प्रेमचंद या श्रीलाल शुक्ल को. कहानियों से लगाव कुछ ऐसा था कि अपने आपको वो शब्दों के द्वारा ही एक्सप्रेस करने लगे. इस दौरान उन्होंने लियो टॉलस्टॉय और Dostoevsky जैसे महान साहित्यकारों के उपन्यास भी हिंदी में पढ़े. काफ़्का की एक किताब खत्म की तो उनका सारा कलेक्शन पढ़ लिया था. 

उस ज़माने वो इतने Impressionable हो चले थे कि  कभी मार्क्स को पढ़ कम्युनिस्ट की तरह समय बिताते तो Ayn Rand को पढ़कर ठीक इसके उलट विचारधारा की पैरवी करते. आठवीं में उन्होंने ज़िंदगी और मौत से जुड़ी एक कविता लिख डाली और उसे अपने शिक्षक को दिखाया, तो उनके पिता को फ़ोन चला गया. अनुराग को ज़्यादा नहीं सोचने की हिदायतें मिलने लगी. हालांकि अब भी पढ़ने और लिखने का दौर ज़ारी था, लेकिन अब ये सब काम छिप कर होने लगा.

अनुराग बचपन में वैज्ञानिक बनना चाहते हैं और इसी के चलते उन्होंने हंसराज कॉलेज में जूलॉजी में दाखिला लिया. कॉलेज में  धुएं के छल्ले की तरह उनका ये सपना काफूर हो गया और 1992 में हंसराज कॉलेज से ग्रैजुएट होने तक अनुराग ने एक जननाट्य मंच जॉइन कर लिया. अगला साल उनकी ज़िंदगी के लिए टर्निंग पॉइंट साबित होने जा रहा था. 1993 में एक दोस्त के कहने पर वे दिल्ली के एक ऑडिटोरियम मे फ़िल्म फ़ेस्टिवल में गए. अनुराग ने वहां 10 दिनों में 50 से अधिक फ़िल्में देख डाली और उन्हें एहसास हुआ कि जिस तरह की कहानियां उनके दिमाग में घूमती रहती हैं, उनके लिए भी एक प्लेटफ़ॉर्म और एक दर्शक वर्ग है. 

asset.muby

1948 की इटालियन फ़िल्म  ‘द बाइसिकल थीव्स’ से वे खासतौर पर प्रभावित हुए थे.  उन्हें एहसास हो चला था कि अपने आपको Express करने के लिए उन्हें फ़िल्मों से ज़्यादा ईमानदार माध्यम नहीं मिल पाएगा. 1993 में हुए एक दिल्ली फ़िल्म फ़ेस्टिवल ने गोरखपुर के लड़के की ज़िंदगी बदल दी थी.

राह तलाशने की कोशिश अक्सर मंज़िल तक पहुंचाती है

justbollywood

3 जून 1993 को मुंबई में झमाझम बारिश हो रही थी.  अनुराग इसी दिन 5000 रूपए लेकर मुंबई पहुंचे थे. शुरूआत में उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा, पैसे खत्म हो चुके थे  लेकिन जो एक ज़रूरी चीज़ अब भी उनके पास थी, वो था उनका Survival Instinct.

उस दौर में पृथ्वी थियेटर में कई कलाकारों का जमावड़ा लगा रहता और वहां घुसना इतना आसान नहीं था. अनुराग ने इस थियेटर के कैफ़े में मुफ्त में वेटर के तौर पर काम करना शुरू किया. कैफ़े के मालिक को वेटर की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन फिर भी वो अनुराग का ऑफ़र वो ठुकरा नहीं पाया. वो दिन में कैफ़े में वेटर का काम करते, बदले में उन्हें रात का खाना मिल जाता.

पृथ्वी में काम करते हुए फ़्लोर से लेकर लोगों की लाइन भी फ्री में पढ़ दिया करते.  यूं ही काम करते हुए  उन्हें एक प्ले में एक्टिंग करने का मौका मिल गया था पर वो प्ले अधूरा रह गया क्योंकि नाटक के निर्देशक की मौत हो गई थी. इसके बाद उन्होंने मकरंद देशपांडे की नाटक मंडली को जॉइन किया लेकिन अनुराग फ्रस्टेशन के चलते अभिनय नहीं कर पाए. 1976 में Martin Scorcese की अद्भुत फ़िल्म ‘टैक्सी ड्राइवर’ देखकर वो अपने लेखन पर ध्यान देने लगे. 

अनुराग उस दौर में दिन में 90-100 पेज लिखने की क्षमता रखते थे. ये वो दौर था जब देश में सैटेलाइट टीवी की शुरुआत हो रही थी. दूरदर्शन पर डेली एपिसोड्स की शुरुआत हो चुकी थी. ऐसे में प्रोड्यूसर्स को ज़्यादा से ज़्यादा लिखने वाले लोगों की ज़रूरत पड़ रही थी. अनुराग उस ज़माने में भी न तो किसी से फ़ीस लेते और न ही किसी तरह का क्रे़डिट. उन्होंने शांति, स्वाभिमान जैसे 90s के कई बेहतरीन शोज़ को मुफ़्त में अपनी सेवाएं दी लेकिन त्रिकाल पहला ऐसा शो था जिसमें अनुराग को पहली बार अपने डॉयलॉग राइटिंग के क्रेडिट्स मिले थे. अनुराग को अपने काम में यकीन था. कुछ समय बाद उन्हें क्रेडिट भी मिलने लगे और अपने डेली सोप्स के लिए पैसा भी मिलने लगा. उन्होंने स्टार बेस्टसैलर्स के लिए एक फ़िल्म ‘लास्ट ट्रेन टू महाकाली’ भी डायरेक्ट की थी.

आपके फ़ैसले ही आपकी ज़िंदगी की दिशा निर्धारित करते हैं

lifenlesson

इसी दौरान उन्हें नामी फ़िल्मकार महेश भट्ट का ऑफ़र आया. महेश भट्ट ने उन्हें एक डेली सोप और तीन फ़िल्मों की कहानी लिखने के लिए ढाई लाख रुपये महीने का ऑफ़र दिया. कुछ सालों के स्ट्रगल के बाद 22-23 साल की उम्र में इतना पैसा वाकई एक कमाल की उपलब्धि थी.

लेकिन अनुराग का दिल कहीं और आ चुका था. वो एक ऐसी फ़िल्म करना चाहते थे जिससे उन्हें 10 महीनों के लिए महज 10 हज़ार महीना मिलता क्योकि फ़िल्म का बजट ही 1 लाख रुपये था. जब उनके घर वालों को ये बात पता चली तो वे नाराज़ हो गए. उनके फ़ैसले पर कई करीबियों ने बात करनी बंद कर दी. लोग हैरान थे कि इतने स्ट्रग्ल के बाद भी अनुराग आखिर एक शानदार ऑफ़र को क्यों ठुकरा रहा है? 

महेश भट्ट का ऑफ़र उन्हें आर्थिक सुरक्षा प्रदान कर रहा था लेकिन जिस फ़िल्म को वो लिखना चाहते थे वो उन्हें क्रिएटिव शांति प्रदान कर रही थी. इस फ़िल्म ने उनकी ज़िंदगी के 10 महीने नहीं बल्कि तीन साल लिए. अनुराग ने महेश भट्ट का ऑफ़र ठुकराकर रामगोपाल वर्मा की ‘सत्या’ फ़िल्म की कहानी लिखी थी.  उस समय संघर्ष कर रहे मनोज वाजपेयी ने ही रामू को अनुराग का नाम सुझाया था. सौरभ शुक्ला के साथ उन्होंने सत्या बनाई और अपने कंफ़र्ट ज़ोन के बाहर जाकर एक फ़ैसला लिया और उसकी उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी. 

पर ये भी सच है कि आज भी सत्या को देश की बेस्ट क्राइम फ़िल्मों में शुमार किया जाता है और इसी के बाद उनका निर्देशन सफ़र भी शुरू हुआ. अनुराग ने इसके बाद शूल, कौन, रात जैसी फ़िल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिखी और इसके बाद उन्होंने फ़िल्म निर्देशन का फ़ैसला किया. 

1999 में 26 साल की उम्र में अनुराग ने अपनी पहली फ़िल्म पांच बनाई. ये फ़िल्म आज भी ‘सेक्स, ड्रग्स और रॉक एंड ऱॉल’ के चलते देश में प्रतिबंधित है. 1993 बम धमाकों पर आई उनकी फ़िल्म ‘ब्लैक फ़्राइडे’ को सुप्रीम कोर्ट ने दो सालों तक अटका कर रखा. इसकी वजह उस समय केस का ट्रायल बताया गया, इस फ़िल्म में नेताओं से लेकर आतंकवादियों तक के नाम काल्पनिक नहीं थे, इससे भी उनकी रिलीज़ में दिक्कतें आई.

अनुराग की पहली फ़िल्म ‘पांच’ पर अब तक बैन लगा है लेकिन इस फ़िल्म को Torrent पर लोगों ने इतना देखा कि आज ये एक Cult क्लासिक फ़िल्म की श्रेणी में है. सेंसर बोर्ड के साथ उनकी ये तनातनी भी ख़त्म नहीं हुई है और ‘पांच’, ‘ब्लैक फ़्राइडे’ से लेकर ‘उड़ता पंजाब’ तक उन्हें अपनी लगभग हर फ़िल्म को रिलीज़ कराने के लिए संघर्ष करना पड़ा है.

फ़िल्ममेकिंग सिर्फ़ कला नहीं बल्कि मैनेजमेंट भी है

dc-cdn

अनुराग मानते हैं कि फ़िल्ममेकिंग कई स्तर पर आपके मैनेजमेंट स्किल्स पर भी निर्भर करता है. एक्टर्स से लेकर फ़िल्म के तकनीशियन और स्टाफ़ तक, सब आपके सपने को पूरा करने के लिए आपके साथ काम कर रहे होते हैं. ऐसे में आप लोगों को for granted लेने की गलती नहीं कर सकते.

अनुराग अरसे से काफी कम बजट में फ़िल्में बनाते रहे हैं क्योंकि वो जानते हैं कि फ़िल्मों के चलते कुछ प्रोड्यूसर्स ऐसे डूबे हैं कि कभी ऊबर नहीं पाए. कम से कम बजट का कारण ही यही है कि प्रोड्यूसर को अपनी लागत वसूल हो जाए और चूंकि ये निर्देशक का सपना है तो ऐसे में ज़िम्मेदारी भी निर्देशक की हो जाती है कि कैसे फ़िल्म की लागत कम से कम रह पाए

मसलन, फ़िल्म ‘गुलाल’ की कहानी इतनी पावरफ़ुल थी कि किसी भी कलाकार ने फ़िल्म के लिए एक भी पैसा नहीं लिया. राजस्थान के जयपुर में दीवाली के दिनों में 10 दिनों तक शानदार रोशनी होती है. अनुराग और उनकी टीम लगातार 6 सालों तक दीवाली पर जाती रही और फ़िल्म शूट कर आखिरकार फ़िल्म रिलीज़ की गई. ‘ब्लैक फ्राइडे’ के समय कलाकार दिन में शूटिंग करते और रात में यात्रा करते, जिससे होटल का खर्चा बच जाता. ‘दैट गर्ल इन यैलो बूट्स’ के कुछ सीन तो अनुराग के घर में ही शूट हुए.

‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के दौरान भी ज्वालामुखी फटने के दृश्य के लिए महज कुछ हज़ार रूपए में निपटा लिया गया था, क्योंकि बजाए के इस सीन को क्रिएट करने के, अनुराग ने उसी जगह जाकर इस सीन को शूट किया. फ़िल्म की स्टार कास्ट भी महंगे होटल की जगह साधारण जगहों पर रूकती. फ़िल्म से जुड़ी पूरी यूनिट का विश्वास ही दरअसल अनुराग के सपनों को पंख दे रहा था और आज वो कम पैसों में क्वालिटी कटेंट के माहिर हो चुके हैं, शायद यही कारण है कि उनकी बड़ी प्रोडक्शन हाउस  और बड़े बजट की फ़िल्म बॉम्बे वेलवेट पिटने पर उन्होंने खुद फ़ैसला किया कि वे बड़े प्रोडक्शन हाउस के साथ काम नहीं करेंगे.     

बेबाक, Rebel आर्टिस्ट जिसने फ़िल्म बैन की धमकियों के ज़माने में खुलकर सरकार को लताड़ा 

bp.blogspot

अनुराग साफ़गोई पसंद करते हैं. अपनी बात को बेबाकी से रखते हैं. शायद यही कारण है कि वो कई लोगों की आंख की किरकिरी भी साबित हुए हैं. उन्होंने न केवल बॉलीवुड में कुछ परिवारों के नेक्सस को तोड़ कर प्रयोगधर्मी सिनेमा का एक स्पेस क्रिएट किया है, बल्कि एक Rebel आर्टिस्ट की तरह सरकार और समाज की Hypocrisy को कई स्तर पर उछाला है.

बॉम्बे वेलवेट न चलने पर वो हताशा में आकर भारतीय दर्शकों के नाम एक ख़त भी लिखते हैं, तो संजय लीला भंसाली पर हमला करने वाली कर्णी सेना की भी कड़े शब्दों में आलोचना करते हैं, पांच और ब्लैक फ़्राइडे रिलीज़ न होने पर एक दौर शराब के अंधेरों में भी बीतता है लेकिन फ़िल्मों को लेकर उनका ज़़ज्बा उन्हें हर बार उबार देता है.

एक ऐसे दौर में जब कई फ़िल्म सितारे राजनीतिक राय देने से बचते हैं, अनुराग ने खुलकर सरकार की नाकामियों पर सवाल उठाए हैं. न केवल इससे उन्होंने ट्रोल्स को अपनी बेपरवाही का संदेश दिया है बल्कि कहीं न कहीं अपने दर्शक वर्ग पर भी भरोसा जताया है. अनुराग के लगातार सवाल पूछने के चलते उन्होंने कुछ हद तक राइट विंग सपोर्टर बेस खोया है, लेकिन उनके बाकी फ़ैंस क्रिस्टोफ़र नोलन के फ़ैंस के माफ़िक उनकी फ़िल्मों के इंतज़ार में होते हैं.  

हर शख़्स अपनी एक अलग यात्रा पर है

cobrapost

कश्यप अब बाहरी नहीं रह गए हैं लेकिन वे आज भी कमर्शियल सिनेमा के दायरे में नहीं आते. वो कुछ कुछ Tarantino या Danny Boyle जैसे स्वतंत्र फ़िल्मकारों की श्रेणी में आते हैं, जो कमर्शियल से दूर स्वतंत्र फ़िल्में बनाते हैं और एक Auteur की तरह अपनी फ़िल्म के आउटपुट पर कुछ हद तक पकड़ भी रखते हैं. Danny Boyle की ऑस्कर विजेता फ़िल्म ‘स्लमडॉग मिलिनेयर’ के Chase सीक्वेंस को अनुराग की फ़िल्म ब्लैक फ़्राइडे से प्रभावित बताया गया था वहीं Tarantino की पहली फ़िल्म Reservoir Dogs को आज भी दुनिया की बेहतरीन स्वतंत्र फ़िल्मों में शुमार किया जाता है.  

2012 में आई गैंग्स ऑफ़ वासेपुर ने उन्हें Indie सिनेमा के शीर्ष पर ला खड़ा किया. उनके काम को Tarantino और Scorsese जैसे फ़िल्म निर्देशकों के स्तर पर देखा जाने लगा. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में नवाजुद्दीन सिद्दीकी के ट्रांसफ़ोर्मेशन की तुलना फ़िल्म द गॉडफ़ादर के एल पचीनो के केरेक्टर से की गई. इस फ़िल्म ने कमर्शियल और नॉन मेनस्ट्रीम फ़िल्मों के ब्रिज को भी कम करने की कोशिश की. 

अनुराग अपने आप को एक औसत निर्देशक ही मानते हैं. उनके कई दोस्त ऐसे हैं जिन्हें वो अपने से बेहतर समझते हैं लेकिन उनका साहस और फ़िल्मों के प्रति उनकी दीवानगी उन्हें दूसरों से अलग बनाती है. अनुराग पर   अनुराग को आज सिनेमा का क्रांतिकारी चेहरा कहा जाने लगा है लेकिन उन्होंने लगातार इस बात को कहा है कि वे किसी और की नहीं बल्कि अपनी खुद की लड़ाई लड़ रहे हैं.  

अनुराग ने अपने संघर्ष के दौरान इंडिया हैबीटेट सेंटर में एक बार कहा था कि ‘मैंने पहली किताब जो पढ़ी थी वो काफ़्का की  ‘द ट्रायल’ थी. मैंने 17 साल से पहले तक कोई भी अंग्रेज़ी किताब नहीं पढ़ी थी और ये मेरी पहली अंग्रेज़ी किताब थी. मैं कभी इस किताब को समझ नहीं पाया लेकिन वो किताब हमेशा गहरी उदासी की तरह मेरे अंतर्मन से जुड़ी रही. अनुराग के मुताबिक, ‘अगर आप किसी सिस्टम में काम करें तो वो बेहद Kafkaesque होता है, आप समझ नहीं पाते कि आपके आस पास क्या चल रहा है और आपके साथ क्या हो रहा है? मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ब्लैक फ्राइडे क्यों बैन हुई? मुझे समझ नहीं आ रहा था पांच क्यों बैन हुई? आखिर क्यों मुझे गुलाल बनाने में दिक्कतें आ रही थीं, मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर अपनी बात रखने में इतना डर क्यों है? ‘

फ़िल्ममेकर Stanley Kubrick  का कहना था कि ज़िंदगी का मतलब कुछ नहीं है लेकिन चूंकि हर इंसान की यात्रा एक-दूसरे से बेहद यूनिक है, ऐसे में आपको ज़िंदगी का सच खुद तलाशना पड़ता है. अनुराग मानते हैं कि वो भी अपनी यात्रा पर निकले हैं और आज संघर्ष और सफ़लता के बाद भी उनका पैशन उन्हें लगातार कई स्तर पर अचंभित करता है. अनुराग को 45वें जन्मदिन की हार्दिक बधाई.  

आपको ये भी पसंद आएगा
जानिए आख़िर क्या वजह थी, जब 53 साल पहले सरकार ने बैन कर दिया था ‘Dum Maro Dum’ सॉन्ग
2024 में बॉलीवुड के ये 7 स्टार्स इंडस्ट्री में करने जा रहे हैं धमाकेदार कमबैक
Year Ender 2023: ‘डंकी’ और ‘सालार’ ही नहीं, इस साल इन फ़िल्मों की भी हुई थी बॉक्स ऑफ़िस पर टक्कर
‘Salaar’ ने एडवांस बुकिंग में तोड़ा ‘Dunki’ का रिकॉर्ड, USA में हुई ताबड़तोड़ एडवांस बुकिंग
ऋषि कपूर और नीतू कपूर का 43 साल पुराना वेडिंग कार्ड हुआ Viral! जानिए कैसी थी उनकी प्रेम कहानी
पहचान कौन! वो साउथ इंडियन एक्ट्रेस जिसे डायरेक्टर ने बोला दिया था कि पहले “लड़कियों जैसी लचक लाओ”