क़िस्सा: जब दिलीप कुमार को अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ़ भाषण देने पर जाना पड़ा था जेल

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बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता दिलीप कुमार (Dilip Kumar) का आज 98 साल की उम्र में मुंबई के हिंदुजा अस्पताल में निधन हो गया है. वो पिछले काफ़ी समय से बीमार चल रहे थे. दिलीप कुमार के निधन की ख़बर के बाद से ही फ़िल्म इंडस्ट्री में शोक की लहर है.

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बॉलीवुड के ‘ट्रेजडी किंग’ कहलाने वाले दिलीप कुमार ने साल 1944 में ‘ज्वार भाटा’ फ़िल्म से अपने एक्टिंग करियर की शुरुआत की थी. हिंदी सिनेमा के असल शो मैन सत्यजीत रे ने दिलीप साहब को हिंदी सिनेमा के पहले और आख़िरी ‘मैथेड एक्टर’ की उपाधि दी थी. इसके अलावा सबसे अधिक बार ‘फ़िल्म फ़ेयर बेस्ट एक्टर अवॉर्ड’ जीतने का रिकॉर्ड भी दिलीप साहब के नाम ही था.

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दिलीप कुमार के पिता मोहम्मद सरवर ख़ान मुंबई में फलों के बड़े कारोबारी थे. वो अपने पिता के इसी काम में हाथ बंटाया करते थे. लेकिन एक रोज़ किसी बात को लेकर कहा सुनी होने के बाद दिलीप कुमार मुंबई से भाग कर पुणे चले गये. पुणे में उन्हें एक ‘ब्रिटिश आर्मी कैंटीन’ में असिस्टेंट की नौकरी मिल गई. इस दौरान दिलीप साहब जवान थे और देश में आज़ादी की जंग भी चल रही थी.

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दिलीप साहब को जब जाना पड़ा था जेल  

दिलीप कुमार की ज़िंदगी में एक दिन ऐसा भी आया जब उन्हें जेल जाना पड़ा. दिलीप साहब ने ख़ुद इस बात का ज़िक्र अपनी ऑटो बायोग्राफ़ी ‘दिलीप कुमार: द सब्सटेंस एंड द शैडो’ में किया है कि वो किस तरह से एक छोटी सी बात को लेकर जेल पहुंच गए थे.

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दरअसल, दिलीप साहब पुणे की जिस ‘ब्रिटिश आर्मी कैंटीन’ में काम करते थे. वहां एक रोज़ उन्होंने भाषण देते हुए जोश-जोश में कह दिया था कि आज़ादी की लड़ाई जायज़ है और ब्रिटिशों की वजह से ही भारत में सारी मुसीबतें पैदा हो रही हैं. ये बात 100 फ़ीसदी सच थी. इसलिए उनके इस क्रांतिकारी भाषण पर ख़ूब तालियां बजीं. लेकिन कुछ देर बाद ब्रिटिश सैनिक हथकड़ी लेकर आए और दिलीप साहब को गिरफ़्तार कर अपने साथ ले गए.

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इसके बाद दिलीप कुमार को पुणे की ‘यरवदा जेल’ भेज दिया गया. दिलीप साहब को जेल में उन क़ैदियों के साथ रखा गया था जो सत्याग्रही थे. इस दौरान उन्हें पता चला कि सरदार बल्लभभाई पटेल भी इसी जेल में क़ैद हैं. देश की आज़ादी को लेकर जेल के सभी क़ैदी भूख हड़ताल पर थे तो दिलीप साहब ने भी उनका साथ देने की ठान ली और भूख हड़ताल पर बैठ गए. भूखे रहने की वजह से उन्हें रात भर नींद नहीं आयी. अगले दिन सुबह दिलीप साहब को छोड़ दिया गया.

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बनना चाहते थे क्रिकेटर  

मोहम्मद यूसुफ़ ख़ान (दिलीप कुमार) का जन्म 11 दिसंबर 1922 में पाकिस्तान के पेशावर (तब के भारत) में हुआ था. लेकिन बंटवारे के बाद उनका परिवार मुंबई आ गया. यूसुफ़ बचपन से ही क्रिकेटर बनना चाहते थे. मुंबई क्रिकेट का गढ़ माना जाता है ऐसे में क्रिकेट उनका जुनून बन गया था. वो दिन रात क्रिकेटर बनने का ख्वाब देखा करते थे. 

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हीरो बनाने का ऑफ़र ठुकरा दिया 

दिलीप साहब में मुंबई में ही स्कूली पढ़ाई के बाद कॉलेज की पढ़ाई भी की. वो कॉलेज के दिनों से ही दिखने में बेहद हैंडसम लगते थे. इसलिए कॉलेज के दोस्तों ने उन्हें कॉलेज की ‘नाट्य मंडली’ का हिस्सा बनने की सलाह दी, लेकिन दिलीप साहब ने इंकार कर दिया. कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म होने के बाद एक रोज हिंदी सिनेमा की पहली अभिनेत्री कही जाने वाली और ‘बॉम्बे टॉकीज’ की मालकिन देविका रानी उनकी ख़ूबसूरती पर फ़िदा हो गईं और दिलीप साहब को हीरो बनाने का ऑफ़र दे डाला, लेकिन उन्होंने ये कहकर ऑफ़र ठुकरा दिया कि उन्हें एक्टिंग नहीं आते. 

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इसी दौरान दिलीप कुमार के पिता का बिज़नेस अचानक डूब गया. परिवार की सभी ज़िम्मेदारियां उनके ऊपर आ गई थीं. इसके बाद दिलीप कुमार ‘बॉम्बे टॉकीज़’ में 1250 रुपये महीने की सैलरी पर नौकरी करने लगे. ये वो दौर था जब एक्टिंग का पेशा काफ़ी बदनाम माना जाता था. लिहाजा दिलीप साहब पर्दे के पीछे रहकर काम करने लगे. साल 1944 में देविका रानी ने दिलीप साहब को ‘ज्वार भाटा’ फ़िल्म ऑफ़र कर दी. इसी फ़िल्म से दिलीप साहब का एक्टिंग करियर शुरू हुआ था.  

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