काग़ज़ के फ़ूल: हिंदी सिनेमा की वो कल्ट क्लासिकल मूवी जो मानी जाती है गुरु दत्त की मौत का कारण

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काग़ज़ के फूल (Kaagaz Ke Phool) वो बॉलीवुड फ़िल्म जो सिनेमाघरों में तो फ़्लॉप रही लेकिन आज भारतीय सिनेमा की कल्ट क्लासिकल मूवीज़ में से एक है. भारतीय सिनेमा के स्कूल माने जाने वाले गुरु दत्त (Guru Dutt) ने हमें ‘प्यासा’, ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’, ‘बाज़ी’ और ‘साहिब बीबी और गुलाम’ जैसी कई शानदार फ़िल्में दी थीं. लेकिन गुरु दत्त केवल 39 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए थे. सिनेमाप्रेमियों के मुताबिक़, गुरु दत्त की मौत के पीछे की एक वजह काग़ज़ के फ़ूल फ़िल्म की असफलता को भी बताया जाता है.

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चलिए आज ‘काग़ज़ के फूल’ फ़िल्म के बनने और गुरुदत्त की मौत के पीछे इस फ़िल्म के रहस्य को भी जान लेते हैं- 

आज गुरु दत्त (Guru Dutt) की ये क्लासिकल फ़िल्म ‘सिनेमेटिक टेक्स्ट बुक’ के तौर पर भी मानी जाती है. भारत की पहली सिनेमास्कोप फ़िल्म ‘काग़ज़ के फूल’ की कहानी मशहूर लेखक अबरार अल्वी ने लिखी थी. फिल्म के एक्टर और निर्देशक गुरु दत्त ने इस फ़िल्म में अपनी ज़िंदगी के कुछ ज़ख़्म पिरोये हैं. ये बात कुछ हद तक सच लगती भी है क्योंकि गुरु दत्त उन दिनों अपनी निजी ज़िंदगी के दर्द से प्रभावित थे.

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गुरु दत्त (Guru Dutt) बचपन से ही सिनेमा के शौक़ीन थे. सन 1940 के दशक में उन्होंने पुणे के ‘प्रभात फ़िल्म कंपनी’ के साथ 3 साल का कॉन्ट्रैक्ट साइन किया. यहीं उन्हें अपने जीवन के दो जिगरी यार देव आनंद और रहमान मिले. सन 1945 में गुरु दत्त ने एक छोटे से रोल से अपना एक्टिंग डेब्यू किया. इसके बाद 1946 में उन्होंने देव आनंद की एक्टिंग डेब्यू फ़िल्म ‘हम एक हैं’ में बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर और डांस कोरियोग्रफ़र काम किया. सान 1947 में जब उनका 3 साल का कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म हुआ तो उन्होंने बतौर फ़्रीलांस असिस्टेंट के तौर पर काम करना शुरू कर दिया.

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सन 1947 में गुरु दत्त वापस मुंबई लौट आये और अलग-अलग बैनरों के साथ काम करने लगे. इसी बीच उन्हें देव आनंद (Dev Anand) ने अपनी कंपनी ‘नवकेतन फ़िल्म्स’ के लिए एक फ़िल्म डायरेक्ट करने का ऑफ़र दिया. इस दौरान दोनों ने एक एग्रीमेंट साइन किया जिसके मुताबिक़ अगर गुरु दत्त कोई फ़िल्म बनाएंगे तो उसमें हीरो देव आनंद होंगे और अगर देव आनंद कोई फ़िल्म प्रोड्यूस करेंगे तो उसमें गुरु दत्त डायरेक्टर होंगे. इस एंग्रीमेंट के तहत दोनों ने 1951 में ‘बाज़ी‘ और 1952 में ‘जाल’ जैसी हिट फ़िल्में दीं. लेकिन, बाद में देव आनंद के बड़े भाई चेतन आनंद के साथ क्रिएटिव डिफ़रेंसेज हो जाने के बाद दोनों ने आगे साथ काम नहीं किया.

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गुरु दत्त (Guru Dutt) अपने करियर के शुरूआती दौर में ही उस समय की जानी-मानी गायिका गीता रॉय से प्रेम कर बैठे थे और उन्होंने शादी भी कर ली थी. ये गुरुदत्त के संघर्ष के दिन थे और गीता बेहद सफल थीं. गुरुदत्त और गीता के बीच सामान्य पति-पत्नी की तरह मतभेद थे और कभी भी अलग होने जैसी कोई बात नहीं थी. लेकिन इस बीच गुरुदत्त की मुलाक़ात वहीदा रहमान से हुई और वो वहीदा के तेज़ तर्रार व्यक्तित्व और तीखे नैन नक्श से प्रभावित गुरुदत्त ने उन्हें अपनी फ़िल्मों में काम देना शुरू किया. बस यहीं से एक गॉसिप ने जन्म लिया और बात का बतंगड़ बनता चला गया. 

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हिंदी फिल्मों में वहीदा का आना भी गुरुदत्त की वजह से ही हुआ था और उनकी अभिनय प्रतिभा की वजह से उनकी हर फिल्म में होती ही थीं. प्यासा के बाद कागज के फूल के समय भी वहीदा को हीरोइन का अत्यंत महत्वपूर्ण रोल मिला था. फ़िल्मीं गॉसिप ने इन दोनों को हमेशा क़रीब लाने की कोशिश की. लेकिन वहीदा रहमान गुरुदत्त को हमेशा अपना शुभचिंतक और मार्गदर्शक मानती रहीं.  

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आसान नहीं थी गुरुदत्त की ज़िंदगी

गुरु दत्त (Guru Dutt) अक्सर टेक्स्ट बुक सिनेमा बनाने को लेकर बेचैन रहा करते थे. फ़िल्म ‘प्यासा’ उनकी बेचैनी का पहला उदाहरण थी जिसे लोगों ने काफ़ी पसंद किया. गुरुदत्त को अक्सर ऐसी कहानियां पसंद आती थीं जिसमें हीरो को कोई समझता नहीं है और जब कोई समझता है तो हीरो उसे दूर भगा देता है और आख़िर में गुमनाम हो कर कहीं ग़ायब हो जाता है. अपने ड्रीम प्रोजेक्ट ‘काग़ज़ के फूल’ में भी उन्होंने इसी तरह के एक हारे हुए जीनियस की कहानी दिखाने की कोशिश की थी, लेकिन दर्शकों को उनकी ये कहानी पसंद नहीं आयी. 

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काग़ज़ के फूल‘ को मिले समीक्षकों के ख़राब रिव्यू 

गुरु दत्त (Guru Dutt) बतौर निर्देशक अब हिंदी सिनेमा में मशहूर हो चुके थे. साल 1957 में उनके निर्देशन में बनी ‘प्यासा’ बहुत बड़ी हिट फ़िल्म साबित हुई. इसकी सफलता के 2 साल बाद सन 1959 उन्होंने ‘काग़ज़ के फूल’ फ़िल्म बनाई. ये फ़िल्म उनका ड्रीम प्रोजेक्ट थी. वो इस पर पानी की तरह पैसा बहा चुके थे. लेकिन जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो दर्शकों ने इसे सिरे से ख़ारिज़ कर दिया. जब फ़िल्म को क्रिक्टिक्स से भी नेगेटिव रिव्यू मिले तो गुरु दत्त ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर सके और बेतहाशा शराब पीने लगे. इस बीच उन्होंने किसी तरह अपने प्रोडक्शन में चौदहवीं का चांद (1960) और साहिब बीबी और गुलाम (1962) का निर्माण ज़रूर किया. लेकिन इसके कुछ समय बाद वो डिप्रेशन में भी चले गये. 

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काग़ज़ के फूल’ से 17 करोड़ रुपये का नुकसान

गुरु दत्त (Guru Dutt) को काग़ज़ के फूल (Kaagaz Ke Phool) फ़िल्म का सदमा इस कदर लगा कि वो ‘चौदहवीं का चांद’ और ‘साहिब बीबी और गुलाम’ के हिट होने से भी ख़ुश नहीं थे. इस फ़िल्म की वजह से गुरु दत्त को उस दौर में 17 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ थाडिप्रेशन के साथ कुछ साल और बीत तो गये. लेकिन 10 अक्टूबर, 1964 को गुरु दत्त ने आत्महत्या कर हिंदी सिनेमा को झकझोर कर रख दिया. किसी ने उम्मीद भी नहीं की थी कि वो केवल 39 साल की उम्र में वो इस दुनिया से चल बसेंगे. 

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आख़िरकार गुरु दत्त के जाने के बाद उनका सही मूल्यांकन हो पाया और ‘काग़ज़ के फ़ूल’ आज पूरी दुनिया में एक सिनेमेटिक टेक्स्ट बुक की तरह देखी जाती है. आज देश के फ़िल्म संस्थानों में निर्देशन और सिनेमेटोग्राफ़ी सिखाने के लिए ‘काग़ज़ के फूल’ फ़िल्म की पढाई करने के लिए कहा जाता है. गुरुदत्त को अपना गुरु मानने वाले कई एकलव्य निर्देशक ‘काग़ज़ के फूल’ को समय से आगे का सिनेमा कहते हैं और हर बार फ़िल्म देख कर कुछ नया सीखते हैं.

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