नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी के स्ट्रगल के कई वो पहलू, जो पहली बार दुनिया के सामने आये हैं

J P Gupta

नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी ने अपनी फ़िल्मों के ज़रिये एक्टिंग के नए मानदंड स्थापित किए हैं. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर-2, मंटो और ठाकरे कुछ ऐसी फ़िल्में हैं, जिनमें उनकी एक्टिंग की न सिर्फ़ आम जनता, बल्कि क्रिटिक्स ने भी तारीफ़ की है. लेकिन इंडस्ट्री में उनके लिए नाम बनाना इतना आसान नहीं था. वो पिछले दो दशकों से इंडस्ट्री में हैं और पिछले दो-चार सालों में उन्हें वो मुकाम हासिल हुआ है, जिसके वो हक़दार थे. 

इंडस्ट्री में उनकी शुरुआत कैसे हुई और इसके लिए उन्हें क्या-क्या संघर्ष करना पड़ा, इसके बारे में उन्होंने खुलकर हाल ही में ह्युमन्स ऑफ़ बॉम्बे से बात की है.

छोटा शहर, बड़े सपने 

मैं उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में किसानों के घर में पैदा हुआ था. मेरे परिवार में कुल 11 लोग थे. मैं सबसे बड़ा था इसलिए मुझे ही अपने छोटे भाई-बहनों का ख़्याल रखना था. मैं बहुत स्ट्रिक्ट था. मैं हमेशा इस बात पर ज़ोर देता था कि वो अपना होमवर्क समय पर करें. 

अगर वो कोई शरारत करते थे, तो मैं उन पर गुस्सा होता था. लेकिन असल में मैं भी कम नहीं था. मैंने भी दिवाली के दौरान अपने दोस्तों के साथ दीये चुराए हैं. 

हमारा परिवार एक साथ रामलीला देखने जाता था. ये वो पहला मौका था, जब मैं एक्टिंग से रूबरू हुआ. मेरा एक दोस्त था, जो राम का रोल किया करता था, उसे देखकर मुझे स्टार्स(एक्टर्स) की भव्यता का अंदाज़ा हुआ. मैं कई बार ख़ुद को राम का रोल करते हुए इमैजिन करता था. 

जब मेरा कॉलेज ख़त्म हुआ, तब मैंने वडोदरा में एक कैमिस्ट की जॉब करनी शुरू की. यहां मैंने एक प्ले देखा. उसे देखने के बाद मैं फिर से एक्टर बनने का सपना देखने लगा. फिर मैंने नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में एडमिशन ले लिया और बाद में अपना करियर बनाने के लिए मुंबई आ गया. 

परिवार ने किया पूरी तरह सपोर्ट

मेरे माता-पिता इतने पढ़े-लिखे नहीं हैं, लेकिन उन्होंने खुलकर मुझे सपोर्ट किया. मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा कि अगर तुम पूरी ईमानदारी और लगन से काम करते रहोगे, तो तुम्हें सफ़लता ज़रूर मिलेगी. 

मुंबई की लाइफ़ देख कर मेरे अंदर से पहली बात यही निकली, कि यहां के लोग कितने फ़ास्ट हैं. मुझे लगा कि मैं शायद उनकी इस गति से ताल नहीं बिठा पाऊंगा, लेकिन धीरे-धीरे मैं मुंबई की इस भागती-दौड़ती ज़िंदगी का हिस्सा बन गया. इसमें मुझे करीब एक महीना लगा. 

दोस्तों से लेते थे उधार 

फ़ाइनेंशियली मैं इतना मज़बूत नहीं था. मुझे सर्वाईव करने के लिए दोस्तों से पैसे उधार लेने पड़ते थे. मैं उनसे 2 दिन बाद पैसे लौटाने का वादा कर पैसे लेता था और फिर दो दिनों बाद किसी और से पैसे उधार लेकर, पिछला उधार चुकाता था. 

मैं एक अपार्टमेंट में चार लोगों के साथ रहता था पर मेरे परिवार ने हमेशा मेरा साथ दिया. मेरी मां के पास फ़ोन नहीं था, इसलिए वो मुझे लेटर लिखकर बुरे वक़्त से लड़ने की प्रेरणा देती थी. वो मुझे बताती थीं कि मेहनत करते रहो, एक दिन तुम्हें इसका फल ज़रूर मिलेगा. इसलिए मैं डटा रहा. 

चौकीदारी की और धनिया भी बेचा

इस दौरान मैंने बहुत-सी मामूली दिखने वाली नौकरियां भी की. मैंने चौकीदारी की, यहां तक कि बाज़ारों में धनिया तक बेचा. इसके साथ ही ऑडिशन भी देता रहता था. मैंने करीब 100 ऑडिशन दिए होंगे. 

मुझे छोटा-बड़ा जो भी रोल मिलता था ,मैं करता चला गया. 12 साल लगे मुझे पहला ब्रेक मिलने में. ये बहुत मुश्किल था. इसके लिए मैंने बहुत स्ट्रगल किया है और ये इतना आसान नहीं था. 

आज जानती है पूरी दुनिया

मैंने मुन्नाभाई एमबीबीएस में छोटे से रोल से लेकर लंचबॉक्स के लिए अवॉर्ड जीतने वाला रोल किया. सरफ़रोश में मुझे किसी ने नहीं पहचाना, लेकिन आज पूरी दुनिया मुझे गायतोंडे वाले रोल के लिए जानती है. मैंने एक वाचमैन से लेकर वाच मी तक का सफ़र तय किया है. अब मैं रुकने वाला नहीं हूं, आप बस देखते जाइए. 

नवाज़ का करियर देखते हुए ये ज़रूर कहा जा सकता है:

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती.

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