पंकज त्रिपाठी की कामयाबी साबित करती है कि काबिलियत हो तो कामयाबी झक्क मार के पीछे आएगी

Sumit Gaur

कुछ साल पहले ही सिनेमा ने हिंदुस्तान में 100 साल पूरे किये. सौ सालों के इस सफ़र की शुरुआत ‘राजा हरिश्चंद्र’ और ‘लैला-मजनू’ जैसी कहानियों के साथ हुई, जिन्हें पर्दे पर दिखा कर जन-मानस को सिनेमा से जोड़ने की कोशिश की गई. इसके साथ ही सिनेमा जैसे-जैसे अपने पैर पसारने लगा, उसने उन विषयों को उठाना शुरू कर दिया, जो आम जन के जीवन को प्रभावित करते थे. हालांकि इस बीच ऐसी भी फ़िल्में बन रही थीं, जिनमें प्रेम कहानियों को परोसने के अलावा ग़रीब हीरो की वो कहानी दिखाई गईं, जिसमें वो अमीर समाज के बीच ख़ुद को तलाशने की कोशिश में लगा रहता है.

ख़ैर फ़िल्म निर्माता इस बात से अच्छी तरह वाकिफ़ थे कि किसी भी कहानी को एक सफ़ल फ़िल्म में बदलने के लिए अभिनय की एक बड़ी भूमिका रहती है. बड़े पर्दे पर बड़ा मुकाम पाने के लिए देश भर से एक्टर और एक्ट्रेस का बड़ा जत्था मुंबई की तरफ़ आने लगा. इन लोगों में कई ऐसे भी थे, जो छोटे शहरों से बड़े सपनों के अरमानों के साथ मुंबई पहुंचे. ऐसे ही कलाकारों में से एक हैं पंकज त्रिपाठी.

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पंकज का जन्म बिहार के गोपालगंज में एक किसान परिवार में हुआ. पंकज के बचपन में उनके पिता उन्हें जी पढ़ा-लिखा कर डॉक्टर बनाना चाहते थे. उनकी ख़्वाहिश थी उनका बेटा पटना जैसे बड़े शहर में रह कर काम करे और परिवार का नाम रौशन करे, पर पंकज के लिए ये सब किसी तीसरी दुनिया की तरह ही था.

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बचपन में पंकज का मन पढ़ाई से कोसों दूर भागा करता था. हां एक चीज़ में उनका बड़ा मन लगता था और वो था नाटक, जिसका जुनून उनके सिर पर कुछ इस कदर सवार था कि गांव में होने वाली सरस्वती पूजा में वो लड़की तक का किरदार निभाते थे. हालांकि पढ़ाई के लिए गांव छोड़ने के बाद पंकज का ये जुनून भी कहीं पीछे छूट गया था. इसी दौरान कॉलेज के दिनों उन्हें दोबारा नाटक करने के मौका मिला, जो अब थिएटर का रूप ले चुका था. 

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थिएटर से जुड़ने के बाद उन्होंने ख़ुद को एक्सप्लोर करना शुरू किया और कई छोटे-बड़े नाटक किये. थिएटर करते-करते पंकज को एनएसडी आने का मौका मिला, जहां उन्होंने अभिनय से जुड़ी बारीकियां सीखीं. एनएसडी से निकलने के बाद पंकज वापस पटना चले गए और एक थिएटर ग्रुप से जुड़ गए. यहां 4 महीने काम करने के बाद बड़े सपनों के कुछ अरमान ले कर मुंबई का रुख़ किया, पर ये मुंबई उसके बिलकुल उल्ट था, जिसके बारे में उन्होंने सोचा था.

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काम के लिए डायरेक्टर्स और निर्माताओं के ऑफ़िस के बाहर लम्बी लाइन के बीच एक आम-सी कद-काठी और सामान्य से चेहरे वाले पंकज ख़ुद को काफ़ी असहज महसूस करते थे. इसके बावजूद पंकज ने हिम्मत नहीं हारी और लगभग डायरेक्टर्स, प्रोडूसर्स से ले कर विज्ञापन फ़िल्मों के लिए ऑडिशन दिए. इस दौरान पंकज ने कई छोटी-बड़ी फ़िल्मों में ऐसे किरदार निभाए, जो किसी की नज़र पर तो नहीं पड़े, पर उन्होंने बॉलीवुड की बेगानी इंडस्ट्री में कुछ दोस्त बना दिए.

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इसी बीच उन्हें पता लगा कि अनुराग कश्यप अपनी फ़िल्म ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के लिए एक्टर्स की तलाश कर रहे हैं. ये ख़बर सुनते ही पंकज एक बार फिर ऑडिशन देने पहुंच गए, जहां कॉस्टिंग डायरेक्टर मनीष छाबरा की नज़र पंकज पर पड़ी. मनीष ने उन्हें फ़िल्म में सुल्तान मिर्ज़ा का किरदार सौंपा, जिस पर पंकज खरे उतरे.

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‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के इस किरदार ने बॉलीवुड में पंकज के लिए अपने दरवाजे खोल दिए, जिसके बाद पंकज ने ‘फुकरे’, ‘निल बट्टे सन्नाटा, ‘बरेली की बर्फी’ जैसी बॉलीवुडिया फ़िल्मों के साथ ही ‘मसान’ और ‘मांझी’ जैसी आर्ट फ़िल्में भी की.

आज पंकज बॉलीवुड में एक ऐसा नाम बन चुके हैं, जिसे किसी पहचान की ज़रूरत नहीं है. बॉलीवुड के अलावा पंकज इस साल तेलगु और तमिल सिनेमा इंडस्ट्री में अपनी छाप छोड़ने की तैयारी कर रहे हैं.

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