जाने भी दो यारों: हिंदी सिनेमा की वो कल्ट फ़िल्म, जो अपने समय से काफ़ी आगे थी

Rashi Sharma

हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब

हम होंगे कामयाब एक दिन

ओ हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास,

हम होंगे कामयाब एक दिन… 

दोस्तों देशभक्ति के इस गाने की इन पंक्तियों के साथ शुरू हुई एक फ़िल्म, जो 39 साल पहले यानि कि 12 अगस्त 1983 को रिलीज़ हुई थी. जो अपने टाइम की आइकॉनिक फ़िल्मों में से एक है. ये फ़िल्म थी कुंदन शाह निर्देशित ‘जाने भी दो यारों’. हिंदी सिनेमा के इतिहास की उन फ़िल्मों में से एक है ये फ़िल्म, जिन पर वक़्त की चाहे कितनी मोटी परत ही क्यों न जम जाए, पर उसकी ताज़गी और पटकथा हमेशा नई सी लगती है.

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अगर बात की जाए फ़िल्म के कलाकारों की तो इसमें एक से एक महान कलाकारों ने काम किया. फिर चाहे वो पंकज कपूर हों, या मरहूम ओम पुरी साहब, सतीश शाह हों, या नसीरुद्दीन शाह. इन सब आर्टिस्ट्स का नाम आज इंडस्ट्री के दिग्गज कलाकारों में शामिल है. इनके अलावा इसमें चार चांद लगाने वाले कलाकारों में रवि वासवानी, सतीश कौशिक, विधु विनोद चोपड़ा, अनुपम खेर, नीना गुप्ता जैसे बेहतरीन एक्टर्स के नाम भी शामिल हैं.

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‘जाने भी दो यारों’ फ़िल्म उस समय सिस्टम में फलै भ्रष्टाचार पर तीखे व्यंग करती है. इस कहानी में दो फ़ोटोग्राफ़र्स को एक न्यूज़पेपर की संपादक शहर के नामी बिल्डर की जासूसी का काम सौंपती है और उसकी फ़ोटोज़ खींचने को कहती है. इन फ़ोटोग्राफ़र्स को बीएमसी अफ़सर डिमैलो और बिल्डर तरनेजा के काले कारनामों का पर्दाफाश करना होता है. लेकिन तरनेजा डिमैलो का मर्डर कर देता है. डिमैलो के मर्डर की ये वारदात फ़ोटोग्राफ़र्स के कैमरे में कैद हो जाती है.

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बस यहां से शुरू होती है डिमैलो की लाश को ठिकाने लगाने की जद्दोजहद और लाश के ज़रिए समाज के ठेकेदारों के असली चेहरों के बेनक़ाब होने की कहानी. डिमैलो का किरदार सतीश शाह ने निभाया था.

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ये दोनों फ़ोटोग्राफ़र डिमेलो की लाश ताबूत समेत ढूंढ लेते हैं, लेकिन ये लाश फ़िल्म की शुरुआत से लेकर अंत तक बस एक हाथ से दूसरे हाथ में ही घूमती रहती है. फ़िल्म का एक सीन तो ऐसा है कि नशे में धुत एक आदमी लाश के ताबूत को कार समझ लेता है और उसको अपनी कार में बांध कर पूरी मुंबई में घूमता है. पर उसे पता ही नहीं चलता कि उस ताबूत में डिमैलो की लाश है.

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भ्रष्ट अफसरों और बिल्डर्स के आपसी खेल और उनके सामने आने की इस कहानी के क्लाइमैक्स में कॉमेडी ही कॉमेडी है. फ़िल्म का लास्ट सीन कुछ इस प्रकार है लाश को लोगों से छुपाते-छुपाते दोनों फ़ोटोग्राफ़र्स उसको बुर्क़ा पहनाकर एक हॉल में घुसते हैं, जहां पर महाभारत का द्रौपदी चीरहरण का सीन शुरू होने वाला है. और उनके पीछे-पीछे लाश को ढूंढते हुए और भी कई लोग आ जाते हैं.

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सबको लाश पर कब्जा करना होता है और लाश इधर-उधर होती हुई चीरहरण के लिए लाई गई द्रौपदी बन मंच पर पहुंच जाती है! बस फिर वो अफरा-तफरी मचती है कि द्रौपदी चीरहरण में रावण, राम-लक्षमण, सीता, सलीम और अनारकली सब आ जाते हैं.

पर धृतराष्ट्र का रोल प्ले करने वाला व्यक्ति अपने रोल में घुस चुका होता है और बार-बार ये क्या हो रहा है, ये क्या हो रहा है… बोलता रहता है.

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यहां आप इस सीन को देखिये और हंस-हंस कर लोट-पोट होते रहिये.

आपको बता दें कि ये सीन हिंदी सिनेमा के इतिहास का अब तक एक कल्ट कॉमेडी है. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस सीन को लिखने में 10 दिन का वक़्त लगा था. इस सीन के कई डायलॉग्ज़ सुन कर आज भी आप हंसे बिना नहीं रह पाएंगे.

‘शांत गदाधारी भीम शांत…’

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‘द्रौपदी तेरे अकेले की नहीं है. हम सब शेयर होल्डर हैं…’

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फ़िल्म में ऐसे कई सीन हैं, जो आपको गुदगुदाते हैं, मगर उनमें एक गंभीर संदेश छिपा है.

जाने भी दो यारों की कहानी, किरदार, घटनाएं और इसका मैसेज आज भी उतनी ही अहमियत रखता है, जितना 39 साल पहले जब यह सिनेमाघरों में आयी थी. हालांकि, उस दौर में दर्शकों ने जाने भी दो यारों को सिरे से नकार दिया था और ये फ़्लॉप फ़िल्मों में शुमार थी. पर इससे बड़ी आइकॉनिक फ़िल्म न ही पहले बनी थी और न ही कभी बन पाएगी.

Feature Image Source: freepressjournal

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