जापान के महानतम फ़िल्मकारों में शुमार अकीरा कुरोसावा ने एक बार कहा था, ‘अगर आपने सत्यजीत रे का सिनेमा नहीं देखा, तो इसका मतलब है कि आप सूरज या चांद देखे बगैर ही दुनिया में रह रहे हैं.’
सत्यजीत रे. निर्विवाद रूप से भारत के महानतम निर्देशकों में शुमार. 2 मई 1921 को जन्मे रे की फ़िल्मों के बारे में काफ़ी कुछ लिखा जा चुका है. उनकी फ़िल्मों को फ़िल्म इंस्टीट्यूट्स में पढ़ाया जाता है. वे भारत के पहले शख़्स थे, जिन्हें सिनेमा में अपने योगदान के लिए ऑस्कर से नवाज़ा गया था. मॉर्डन डे फ़िल्ममेकर्स भी उनकी निर्देशन की बारीकियों के कायल हैं.
वो अपनी फिल्मों के सारे स्क्रीनप्ले खुद लिखते थे. वो खुद ही अपनी फ़िल्म के सेट और कॉस्ट्यूम डिज़ाइन करते थे. 1961 के बाद से उन्होंने अपनी हर फ़िल्म में संगीत भी ख़ुद दिया. 1964 में आई ‘चारुलता’ के बाद से वो कैमरा भी खुद संभालने लगे थे. इतना ही नहीं, अपनी नई फ़िल्मों के लिए पोस्टर तक वो खुद डिज़ाइन किया करते थे. रे कंपोज़र थे, राइटर थे, ग्राफ़िक डिज़ाइनर थे. मतलब वे अपने आप में एक फ़िल्म इंस्टीट्यूट थे.
1948 में आई इटालियन डायरेक्टर वितोरियो दे सिका की ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म, ‘बायसिकिल थीव्स’ की मार्मिक प्रस्तुति ने 27 साल के एक युवक को फ़िल्ममेकिंग की तरफ़ मोड़ दिया था. ये वही फ़िल्म थी, जिसे दिल्ली के एक फ़िल्म फ़ेस्टिवल में देखने के बाद अनुराग कश्यप भी सब कुछ छोड़-छाड़ कर फ़िल्ममेकर बनने मायानगरी पहुंचे थे. उस समय कोई नहीं जानता था कि रे का नाम 20वीं शताब्दी के महानतम निर्देशकों में आने होने वाला है.
लेकिन क्या कारण है कि 36 नेशनल अवॉर्ड और कई देशी-विदेशी अवॉर्ड जीतने वाला ये निर्देशक हिंदी सिनेमा के प्रति उदासीन ही रहा?
रे ने अपने करियर में केवल एक हिंदी फ़िल्म बनाई थी. फ़िल्म का नाम था ‘शतरंज के खिलाड़ी’. प्रेमचंद के उपन्यास पर बनी इस फ़िल्म को क्रिटिक्स ने खूब सराहा था. लेकिन इसके बावजूद उन्होंने फिर कभी हिंदी फ़िल्मों की तरफ़ रुख नहीं किया. प्रियदर्शन, राम गोपाल वर्मा, मणिरत्नम जैसे निर्देशक हैं, जो बॉलीवुड का मोह नहीं छोड़ पाए लेकिन रे ने हमेशा से कमर्शियल सिनेमा से दूरी बनाए रखी.
1948 में एक अखबार में आर्टिकल छपा था. आर्टिकल का शीर्षक था – आखिर भारतीय फ़िल्मों की समस्या क्या है? हिंदी सिनेमा के गिरते स्तर पर टिप्पणी देने वाले ये युवा बंगाली भी रे ही थे.
दरअसल रे हमेशा से ही कहानी और कंटेट को महत्व देते रहे. वे अपनी फ़िल्मों में असल ज़िंदगियों की तकलीफ़ और संघर्ष को प्राथमिकता दिया करते थे. वे फ़्रेंच न्यू वेव और इटालियन नियो रियल्ज़िम से भी प्रभावित थे. फ्रांस और इटली के निर्देशकों ने 50 और 60 के दशक के दौरान कई ऐसी फ़िल्में बनाई, जो सामाजिक सरोकारिता, युद्ध से जूझते हालातों और क्रांतिकारी प्रदर्शन की गवाह रही. रे के लिए भी सिनेमा में यथार्थवाद की अहम भूमिका थी.
ऐसा नहीं था कि रे पूरी तरह से बॉलीवुड के खिलाफ़ थे. वे यूं तो बॉलीवुड के लार्जर दैन लाइफ़ और कमर्शियल सिनेमा की पैरवी नहीं करते थे, लेकिन एक और कारण था जिसकी वजह से वे हिंदी सिनेमा को लेकर ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाते थे. दरअसल वे हिंदी अच्छे से नहीं जानते थे. उन्होंने एक बार वहीदा रहमान को कहा भी था कि अगर उन्हें हिंदी अच्छी आती, तो वे शतरंज के खिलाड़ी को दस गुना बेहतर बनाते.
सत्यजीत रे द्वारा निर्मित फ़िल्में अपने समय से बहुत आगे की फ़िल्में थी. हमारी हिन्दी फ़िल्मों के दर्शक भले ही नाच-गाने वाली फ़िल्मों को पैसा वसूल समझ कर ख़ुशी-ख़ुशी वापस आ जाएं, पर सत्यजीत की फ़िल्में किसी सिनेमा हॉल की मोहताज नहीं हैं. उनके द्वारा निर्मित फ़िल्में भारतीय फ़िल्मों के इतिहास के पन्नों में अपना नाम दर्ज कर चुकी हैं.
उनकी फ़िल्मों की कहानी जितनी दिलचस्प है, उतनी ही दिलचस्प है उनकी फ़िल्मों के पीछे की कहानी.
पथेर पांचाली
भारत से पहले ये फ़िल्म लंदन में रिलीज़ हुई थी. इस फ़िल्म की शूटिंग हर दूसरे रविवार को होती थी. बजट की कमी के कारण इस फ़िल्म को बनने में काफ़ी समय लग गया. फ़िल्म के पहले सीन को शूट करने में ही निर्माताओं को बहुत पापड़ बेलने पड़े थे. कई समस्याओं आई, जानवरों द्वारा काश फूल के खेत चर जाने से लेकर अपु और दुर्गा के पालतु कुत्ते के मर जाने से लेकर सही समय पर बारिश न होने तक, कई समस्याएं आईं. जो कलाकार इस फ़िल्म में काम कर रहे थे, वे बहुत ही कम पगार पर काम कर रहे थे. पर फ़िल्म बनी और ऐसी बनी की इतिहास में अमर हो गई. भाई-बहन की कहानी को इतनी संजीदगी से सत्यजीत ही दर्शा सकते हैं.
भारतीय सिनेमा में औरतों को Protagonist के रूप में दिखाना बहुत बड़ी बात हो जाती है. शायद, हमारी दर्शक-दीर्घा ऐसी है कि औरतों को दबी-कुचली किसी पुरुष की कृपा पर जीने वाली ही देखना चाहते हैं. तभी तो कितनी ही औरतों पर बनी फ़िल्में Audience के अभाव में उस ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाई, पर सत्यजीत ने Female Artists के हाथों में भी अपनी फ़िल्मों की बागडोर थमाई है.
चारुलता
चारुलता एक ऐसी फ़िल्म थी, जो शायद आज के दौर में बनती, तो CBFC उसके टुकड़े-टुकड़े कर देती. इस फ़िल्म की नायिका चारु, विवाहिता होने के बावजूद अपना जीवन एकांत में ही बिता रही है, जैसा कि बहुत सी भारतीय नारियों का जीवन बीतता है. पर चारु को प्रेम भी होता है तो अपने पति, भूपति दत्त के रिश्तेदार अमोल से. पर प्रेम शादी से पहले तो पाप है ही, शादी के बाद तो अनर्थ है. रवींद्रनाथ की कहानी ‘नश्टनीर’ पर बनी ये फ़िल्म, सत्यजीत रे की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है.
सत्यजीत अपनी फ़िल्मों में किसी न किसी सामाजिक समस्या को उजागर करते थे. ‘अंधविश्वास’ ‘अंधभक्ति’, हमारे समाज की एक गंभीर समस्या है.
देवी
अंधविश्वास पर करारी चोट करती ये फ़िल्म देवी के नाम पर होने वाले अंधविश्वास की ओर इशारा करती है. इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि कैसे एक साधारण नारी रातों-रात देवी बन जाती है और अंत में इस अंधभक्ति का फल सबको भुगतना पड़ता है.
सत्यजीत ने महानगरों में जीवन बीता रहे युवाओं पर भी फ़िल्म बनाई है.
अरन्येर दिन रात्रि
सुनील गंगोपाध्याय की किताब पर बनी ये फ़िल्म उन सभी को एक दफ़ा देखनी चाहिए, जो शहरी जीवन से त्रस्त हो गए हैं. इस फ़िल्म से ये साबित हो जाता है कि सत्यजीत को इंसान की Feelings की बहुत गहरी समझ है.
ऐसा भी नहीं है कि सत्यजीत रे ने सिर्फ़ सीरियस फ़िल्में ही बनाईं.
गुपी गाएन बाघा बाएन
इस फ़िल्म के दो सिक्वल भी हैं. अपने दादाजी की कहानी पर सत्यजीत ने ये फ़िल्म बनाई थी. पूरी फ़िल्म बहुत ही हास्यास्पद है और इसका सच्चाई से कोई वास्ता नहीं है.
सत्यजीत फ़िल्मों के साथ Experiment करते रहते थे. जब उनके पास पैसे नहीं थे, तब भी वे पैसे बचाकर फ़िल्में बनाते थे. जब पैसे आ गए तब भी वे फ़िल्मों के साथ प्रयोग करते रहे. उनकी फ़िल्में मनोरंजन के साथ-साथ समाज को उसका आईना भी दिखाती हैं. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का डायलॉग था कि, ‘हिन्दुस्तान में जब तक सनिमा है, लोग बेवकूफ़ बनते रहेंगे’. सही है, पर हिन्दुस्तान में जब तक अच्छी फ़िल्में न बने, सिर्फ़ तब तक.