भारतीय इतिहास में एक से बढ़कर एक योद्धा हुए हैं, जिन्होंने समय-समय पर देश पर बुरी नज़र रखने वालों को निस्तेनाबूत किया है. भारतीय इतिहास में जब-जब वीरों की बात होती है उनकी वीरता और साहस के चर्चे भी होना आम बात है. आज हम आपको भारतीय इतिहास के दो ऐसे ही राजपुताना वीर गोरा और बादल की वीरता व पराक्रम की सच्ची कहानी बताने जा रहे हैं, जो इतिहास के पन्नों में कहीं खो सी गई है.
भारतीय इतिहास में आपने गोरा-बादल की कहानी ज़रूर पढ़ी और सुनी होगी. दरअसल, गौरा और बादल दो ऐसे शूरवीरों थे, जिनके पराक्रम से राजस्थान की मिट्टी बलिदानी है. गोरा और बादल महान राजपूत योद्धा थे, जिनकी कहानी मध्ययुगीन भारतीय ग्रंथों ‘पद्मावत’, ‘गोरा-बादल पद्मिनी चौपाई’ और उनके बाद के रूपांतरों में दिखाई देती है. ये दोनों राजपूत योद्धा चित्तौड़ के राजा रतन सिंह की सेना के अभिन्न अंग हुआ करते थे.
मुहणोत नैणसी के प्रसिद्ध काव्य ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ में इन दो वीरों के बारे में पुख़्ता जानकारी मिलती है. इस काव्य की मानें तो रिश्ते में चाचा और भतीजा लगने वाले ‘गौरा और बादल’ जालौर के ‘चौहान वंश’ से संबंध रखते थे, जो ‘रानी पद्मिनी’ की विवाह के बाद चित्तौड़ के राजा रतन सिंह के राज्य का हिस्सा बन गए थे. ये दोनों इतने पराक्रमी थे कि दुश्मन उनके नाम से ही कांपते थे. एक तरफ़ जहां चाचा ‘गोरा’ दुश्मनों के लिए काल के सामान थे, वहीं दूसरी तरफ भतीजा ‘बादल’ दुश्मनों के संहार के आगे मृत्यु तक को शून्य समझता था. यहीं कारण था कि मेवाड़ के राजा रतन सिंह ने उन्हें अपनी सेना की बागडोर दे रखी थी.
दरअसल, जब दिल्ली के सम्राट अलाउद्दीन ख़िलजी ने मेवाड़ के राजा रतनसेन की पत्नी ‘पद्मावती’ को हासिल करने की ज़िद्द में चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण कर राजा रावल रतनसिंह को बंदी बना लिया था. इस दौरान ख़िलजी को मुहतोड़ जवाब देने वाले योद्धा ‘गोरा’ और ‘बादल’ ही थे. ‘गोरा’ और ‘बदल’ रिश्ते में चाचा भतीजे लगते थे, जो जालोर के ‘चौहान वंश’ से संबंध रखते थे. मेवाड़ की धरती की गौरवगाथा ‘गोरा और बादल’ जैसे वीरों के नाम के बिना अधूरी है. आज भी मेवाड़ की माटी में आज भी इनके रक्त की लालिमा झलकती है.
रतनसिंह को ख़िलजी की क़ैद से छुड़ाने वाले
अलाउद्दीन ख़िलजी की नज़र हमेशा से ही मेवाड़ राज्य पर थी, लेकिन वो युद्ध में कभी भी राजपूतों को नहीं हरा सका था. इसलिए उसने कुटनीतिक चाल चली और मित्रता के बहाने रावल रतन सिंह को मिलने के लिए बुलाया और धोखे से उन्हें बंदी बना लिया. इसके बाद खिलजी ने मेवाड़ को संदेश भिजवाया कि रावल को तभी आज़ाद किया जाएगा, जब ‘रानी पद्मिनी’ को उसके पास भेजा जायेगा.
अलाउद्दीन खिलजी के इस धोखे और संदेश के बाद राजपूत क्रोधित हो उठे. इस दौरान ‘रानी पद्मिनी’ ने धीरज व चतुराई से काम लेने का आग्रह किया. इसके बाद ‘रानी पद्मिनी’ ने ‘गोरा-बादल’ के साथ से मिलकर खिलजी को उसी तरह जबाब देने की रणनीति अपनाई जैसा खिलजी ने रावल रतन सिंह के साथ किया था. रणनीति के तहत खिलजी को संदेश भिजवाया गया कि रानी आने को तैयार है, लेकिन उसकी दासियां भी साथ आएंगी. खिलजी ये सुनकर आनंदित हो उठा, लेकिन उसे इस बात का ज़रा सा भी अंदाजा नहीं था कि उसके साथ बड़ा खेल होने वाला है.
रणनीति के तहत रानी पद्मिनी की पालकियां पर रानी की जगह वेश बदलकर ‘गोरा’ बैठा था और दासियों की जगह अन्य पालकियों में ‘बादल’ के साथ चुने हुए वीर राजपूत बैठे थे. इस दौरान अलाउद्दीन खिलजी के पास सूचना भिजवाई गई कि रानी पद्मिनी पहले रावल रतन सिंह से मिलेंगी, इसके बाद खिलजी के पास आएंगी. खिलजी ने रानी के इस प्रताव को भी ख़ुशी ख़ुशी स्वीकार कर लिया. इसके बाद सबसे पहले रानी पद्मिनी वाली पालकी जिसमें गोरा बैठा था, वो रावल रतन सिंह के तम्बू में भेजी गई.
अलाउद्दीन खिलजी पर आक्रमण
रावल रतन सिंह से मिलते ही वीर योद्धा ‘गोरा’ उन्हें घोड़े पर बिठाकर तुरंत वहां से रवाना हो गया, जबकि अन्य पालकियों में बैठे राजपूत योद्धा खिलजी के सैनिकों पर टूट पड़े. राजपूतों के इस अचानक हमले से खिलजी की सेना हक्की-बक्की रहा गई. इससे पहले खिलजी कुछ समझ पाता राजपूतों ने रतनसिंह को सुरक्षित अपने दुर्ग तक पहुंचा दिया था. इस दौरान ‘गोरा और बादल’ काल बनकर खिलजी की सेना पर टूट पड़े और अंत में दोनों वीरो की भांति लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये.
गौरतलब है कि अलाउद्दीन खिलजी ने बाद में चित्तौड़ पर हमला कर दिया था और राजा रावल रतन सिंह की हार होने पर ‘रानी पद्मिनी’ ने अपनी अन्य रानियों के साथ ‘जौहर’ कर लिया था. लेकिन कई इतिहासकारों का कहना है कि ‘जौहर’ की ये कहानी ग़लत है और ऐसा कुछ नहीं हुआ था. इसे लेकर आज भी कई मतभेद हैं. बॉलीवुड निर्देशक संजय लीला भंसाली की फ़िल्म ‘पद्मावत’ में भी ‘गोरा और बादल’ के किरदार दिखाये गए थे.
आज भी चित्तौड़गढ़ क़िले में ‘गोरा-बादल’ की याद में ‘रानी पद्मिनी’ के महल के दक्षिण में गुंबद के आकार के दो घर बनाए गए हैं, जिन्हें ‘गोरा-बादल’ नाम दिया गया है. गोरा और बादल की इस कहानी का गुणगान राजस्थान के उदयपुर के ‘एकलिंग नाथ मंदिर’ में भी मिलता है. इन दोनों की कहानी उदयपुर में वॉल पेंटिंग के जरिए बताई गई है.