भारत का वो सिपाही जिसने स्वदेशी ‘मार्गो साबुन’ बनाकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ी थी आज़ादी की जंग

Nripendra

भारत को आज़ाद कराने में हमारे कई वीर सिपाहियों ने अपने प्राणों का आहुति दी. देश को आज़ाद कराने में बच्चों से लेकर बूढ़ों तक ने अपनी भागीदारी निभाई. वहीं, देश की स्वतंत्र कराने में क्रांतिकारियों के अलावा व्यापारी वर्ग भी था जिन्होंने स्वदेशी चीज़ों का निर्माण कर अंग्रेज़ों का विरोध किया. ये तो सभी जानते हैं कि अंग्रेज़ किस तरह हमारे देसी उत्पादों पर प्रतिबंध लगा रहे थे. इसलिए, विदेशी उत्पादों का बहिष्कार करने के लिए देसी चीज़ों का बनना ज़रूरी था. आइये, बताते हैं आपको उस आज़ादी के सिपाही के बारे में जिसने स्वदेशी साबुत मार्गो बनाकर लड़ी अंग्रेजों के विरुद्ध जंग.

मार्गो साबुन

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90 के दशक वालों के लिए मार्गो साबुन कोई नया नाम नहीं है. नीम युक्त साबुन उस दौरान काफ़ी इस्तेमाल में था. माना जाता है कि इसे 1920 में बनाया गया था. नीम युक्त होने के कारण ये त्वचा के लिए लाभकारी माना जाता है. ख़ास बात ये है कि ये एक स्वदेशी साबुन है जिसे कलकत्ता केमिकल कंपनी ने बनाया था.

के.सी. दास  

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स्वदेशी साबुन मार्गों बनाने वाले उस भारतीय का नाम था के.सी. दास यानी खगेंद्र चंद्र दास, जो एक बंगाली थे और कलकत्ता केमिकल फ़ैक्ट्री के मालिक. के.सी. दास की इस स्वदेशी कंपनी ने कई स्वदेशी उत्पाद बनाए जिनमें मार्गों काफ़ी ज़्यादा लोकप्रिय हुआ. के.सी दास का जन्म 1869 में हुआ था. उनके पिता राय बहादुर तारक चंद्र दास एक जज थे और उनकी माता मोहिनी एक गांधीवादी और एक क्रांतिकारी थी.


के.सी. दास पर पिता से ज़्यादा उनकी माता का प्रभाव ज़्यादा रहा था. यही वजह थी कि उनके अंदर भी एक क्रांतिकारी भावना थी. उन्होंने कलकत्ता से ही अपनी पढ़ाई पूरी की और बाद में वो shibpur engineering college में प्रोफ़ेशर बनें.

स्वदेशी भावना का ज़ोर

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‘फूट डालो राज करो’ की नीति के तरह 16 अक्तूबर 1905 में लॉर्ड कर्ज़न द्वारा बंगाल का विभाजन कर दिया गया था. इस प्रभाव ये हुआ कि जिस एकता को अंग्रेज़ तोड़ना चाहते थे, वो और प्रबल हो गई. देखते ही देखते अंग्रेज़ों से नाराज़ भारतीयों के अंदर स्वदेशी भावना ने ज़ोर पकड़ लिया. इसके लिए अंग्रेज़ी उत्पादों का बहिष्कार किया गया और स्वदेशी उत्पादों के इस्तेमाल को प्राथमिकता दी गई.

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पिता ने डाला ब्रिटेन जाने का दवाब  

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अंग्रेज़ों के बढ़ते अत्याचार से के.सी दास भी काफ़ी गुस्से में थे और वो इस आज़ादी के इस आंदोलन में शामिल हो गए. वहीं, के.सी दास के पिता से भारत में ब्रिटिश सरकार के कुछ अफ़सर करीबी थे जिन्होंने के.सी दास के बारे में उनके पिता को जानकारी दी और कहा कि बेटे को समझाने वरना उसे गिरफ़्तार कर लिया जाएगा.


इसके बाद पिता ने के.सी दास को लंदन जाकर पढ़ाई करने का आदेश दिया पर के.सी दास वहां नहीं जाना चाहते थे क्योंकि वही लोग भारत में तानाशाही कर रहे थे. लेकिन, पिता के आदेश का पालन करने के लिए वो बाद में अमेरिका चले गए थे लेकिन ब्रिटेन नहीं गए. 
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कलकत्ता कैमिकल कंपनी

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पढ़ाई पूरी करने के बाद के.सी दास अपने देश वापस आ गए लेकिन यहां आने से पहले वो कुछ समय जापान में रहे ताकि व्यापार के गुर सीख लिए जाएं. इसके बाद उन्होंने आर.एन. सेन और बी.एन. मैत्रा के साथ मिलकर 1916 में कलकत्ता कमिकल कंपनी की शुरुआत की. लेकिन, 1920 तक उन्होंने अपनी कंपनी का काफ़ी विस्तार कर लिया था. शुरुआत में टॉयलेट के सामान बनाए गए लेकिन बाद में नीम युक्त मार्गो साबुन नीम टूथपेस्ट बनाया गया. इसके लिए उन्होंने नीम के रस के गुणों की मार्केटिंग भी की थी.


क़ीमत बहुत कम रखी गई ताकि भारत का हर वर्ग इसे ख़रीद सके. वहीं, इसके अलावा और भी स्वदेशी उत्पादों का निर्माण किया गया था. जानकर हैरानी होगी कि के.सी के उत्पाद न सिर्फ़ भारत बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया में भी काफ़ी लोकप्रिय हुए और उनकी मांग बढ़ी. कहते हैं कि मार्गो साबुत की इतनी मांग बढ़ गई थी कि इसका एक प्लांक सिंगापुर में भी लगाना पड़ गया था.

पहने सिर्फ़ खादी के वस्त्र 

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के.सी दास सिर्फ़ देशी उत्पाद बेच नहीं रहे थे, बल्कि उनका इस्तेमाल भी किया करते थे. कहते हैं कि जापान और अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने सिर्फ़ खादी के ही कपड़े पहनें. वहीं, कहते हैं कि जब के.सी. दास इस दुनिया को छोड़कर गए तब तक उनकी कंपनी ने दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अच्छा-खासा नाम बना लिया था.

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