नटराज : तीन दोस्तों ने जर्मनी से सीखकर खोली थी कंपनी, आज 50 से अधिक देश ख़रीदते हैं इनकी पेंसिल

Nripendra

नटराज और अप्सरा पेंसिल बचपन की यादों का हिस्सा हैं. लाल और काले रंग में आने वाली नटराज और काले-सफ़ेद रंग में आने वाली अप्सरा पेंसिल. हालांकि, वर्तमान में भी ये पेंसिल इस्तेमाल में लाई जाती हैं, लेकिन आज पेंसिल के विकल्प बहुत मौजूद हैं. वहीं, जितना जुड़ाव उस दौर के बच्चों के साथ इन पेंसिलों का था वो आज के बच्चों के साथ न के बराबार दिखेगा. 

वैसे बहुतों को पता नहीं होगा कि नटराज (History of Natraj Pencil) और अप्सरा पेंसिल एक ही कंपनी के दो अलग-अलग ब्रांड हैं. वहीं, इसकी शुरुआती कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. इस लेख के ज़रिए हम आपको बताएंगे कि आख़िर कैसे ये दो पेंसिल सामने आईं और कैसे एक बड़ी सफ़लता हासिल कर पाईं. इसके अलावा और भी कई जानकारी आपको इस लेख में दी जाएंगी. 

आइये, आप सीधे जानते हैं History of Natraj Pencil और अप्सरा पेंसिल का इतिहास. 

जब छाई हुईं थीं विदेशी पेंसिलें 

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ये वो समय था जब भारत गुलामी के दौर से गुज़र रहा था. दैनिक इस्तेमाल की कई चीज़ें विदेशों से बनकर भारत आती थीं. जानकारी के अनुसार, 1939-40 के बीच लगभग 6 लाख रुपए से ज़्यादा की पेंसिलें इंग्लैंड, जर्मनी व जापान से मंगाई जाती थीं. 

लेकिन, द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत के साथ इन पेंसिलों की सप्लाई अचानक कम हो गई. ऐसे में भारत के कई व्यापारियों को देसी पेंसिल बनाने का मौक़ा मिला. मद्रास, कलकत्ता व बॉम्बे में पेंसिल के कई कारख़ाने स्थापित किए गए थे. 

फिर से विदेशी पेंसिलों की बढ़ी सप्लाई  

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द्वितीय विश्व युद्ध के अंत के बाद विदेशी पेंसिलों की सप्लाई फिर से बढ़ गई थी. वहीं, सप्लाई बढ़ने से देसी पेंसिलें विदेशों से आने वाली पेंसिलों के सामने टीक नहीं पाती थीं. देसी कारोबारियों की हालत ख़राब होने लगी और उन्हें सरकार से मदद लेने पड़ी. कहते हैं कि आज़ादी के बाद भारतीय सरकार ने विदेशी पेंसिलों के इम्पोर्ट पर कुछ प्रतिबंध लगाए थे, जिससे देसी पेंसिल के कारोबारियों को फिर से उभरने का मौक़ा मिला.  

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तीन दोस्तों ने मिलकर शुरुआत की नटराज पेंसिल की

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1958 में नटराज पेंसिल की शुरुआत हुई थी. इसे शुरू करने वाले तीन दोस्त थे, एक नाम था बीजे सांघवी, दूसरे का नाम था रामनाथ मेहरा और तीसरे थे मनसूकनी. जानकारी के अनुसार, पेंसिल का व्यवसाय कैसे शुरू करना है, ये तीनों जर्मनी में जाकर समझकर आए थे. इनके द्वारा बनाई गई कंपनी का पहला उत्पाद नटराज पेंसिल ही थी. वहीं, समय लगा, लेकिन धीरे-धीरे पेंसिल की लोकप्रियता बढ़ी. वहीं, बाद में कंपनी का कंट्रोल बीजे सांघवी के हाथों में आ गया. 

अप्सरा पेंसिल की शुरुआत  

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नटराज पेंसिल के बाद कंपनी (Hindustan Pencils Pvt. Ltd.) ने 1970 में अप्सरा पेंसिल की शुरुआत की. पहले ड्रॉइंग के लिए अप्सरा पेंसिल बनाई गईं, लेकिन बाद में अप्सरा के सभी प्रोडक्ट आने लगे, जो नटराज के थे. आज भी इनकी पेंसिल, इरेज़र, शॉपनर, ज़्योमेट्री बॉक्स, रंग आदि मार्केट में उपलब्ध हैं. 

एक ही कंपनी के पेंसिलों को दो अलग-अलग ब्रांड के रूप में पेश किया गया था. नटराज को किफ़ायती और मजबूत, तो वहीं अप्सरा को प्रीमियम पेंसिल के रूप में सामने रख गया. कंपनी की ये दो पेंसिलें कई सालों तक नंबर 1 पेंसिल बनी रहीं. 
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जंगल से नहीं काटी जाती हैं पेंसिल के लिए लकड़ियां 

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पेंसिल बनाने के लिए लकड़ियों की ज़रूरत होती है. वहीं, हिंदुस्तान पेंसिल का दावा है कि वो जंगल से लकड़ियां नहीं काटता बल्कि पेंसिल के लिए पेड़ों को उगाता है. जानकारी के अनुसार, कंपनी एक दिन में लगभग 8 लाख 50 हज़ार पेंसिल बनाती है. साथ ही 50 से ज़्यादा देशों को पेंसिल के साथ अन्य प्रोडक्ट सप्लाई किए जाते हैं. बता दें कि एक पेड़ से लगभग 1 लाख 70 हज़ार पेंसिल बनाई जा सकती हैं. वहीं, आज भी है सांधवी फ़ैमिली के हाथों कंपनी की बागडोर है.  

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