कंचन प्रभा देवी: वो महारानी जिसकी समझदारी से पाकिस्तान का हिस्सा बनने से बच गया था ‘त्रिपुरा’

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कंचन प्रभा देवी: बात साल 1947 की है. आज़ादी से पहले ही रियासतों को लेकर गहमागहमी शुरू हो चुकी थी. भारत के उत्तर पूर्वी राज्य त्रिपुरा में तब ‘माणिक्य वंश’ के राजा बीर बिक्रम किशोर देब बर्मन का शासन था. ब्रिटिश काल के दौरान अंग्रेज़ ‘त्रिपुरा’ को ‘हिल टिप्पेरा’ के नाम से बुलाते थे. त्रिपुरा में तब एक ‘टिप्पेरा ज़िला’ भी हुआ करता था जिसे 18वीं सदी में ‘ओल्ड अगरतला’ और 19वीं सदी में ‘अगरतला’ नाम देकर राजधानी बनाया गया. राजा बीर बिक्रम तब त्रिपुरा के आसपास के इलाक़ों ‘नोआखाली’ और ‘सिलहट’ से भी ज़मींदारी वसूला करते थे, जिसका एक बड़ा हिस्सा अंग्रेज़ों के पास जाता था.

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आज़ादी से ठीक पहले अंग्रेज़ों ने Radcliffe Line के तहत बंटवारे में त्रिपुरा के टिप्पेरा और नोआखाली ज़िला समेत काफ़ी हिस्सा भी पाकिस्तान को दे दिया. इसके अलावा चटगांव (अब बांग्लादेश) का पहाड़ी इलाका भी पाकिस्तान के हिस्से चला गया. चटगांव में 97% जनसंख्या बौद्ध धर्म मानने वालों की थी. इसलिए ये लोग पूर्वी पाकिस्तान नहीं, बल्कि भारत के साथ जुड़ना चाहते थे. लेकिन मुस्लिम लीग सन 1947 की शुरुआत से ही चटगांव को लेकर प्रयासरत थी.

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चटगांव (Chattogram) में ‘मुस्लिम लीग’ की बढ़ती दखलंदाज़ी से दंगों का माहौल बना तो इस इलाक़े से लोग भागकर त्रिपुरा और आसपास के राज्यों में शरण लेने लगे. सन 1947 के अप्रैल महीने तक राजा बीर बिक्रम को अंदेशा हो चुका था कि भारत-पाकिस्तान बंटवारे की घोषणा होते ही राज्य में हालात और भी ख़राब हो जायेंगे. आख़िरकार 28 अप्रैल, 1947 के रोज़ राजा बीर बिक्रम ने घोषणा की कि ‘त्रिपुरा’ भारत का हिस्सा बनेगा. इस संबंध में उन्होंने टेलीग्राम भेज ‘संविधान सभा’ के सचिव को भी सूचित कर दिया.

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महाराजा की मौत के बाद महारानी ने संभाला मोर्चा

17 मई, 1947 को अचानक महाराजा बीर बिक्रम किशोर देब बर्मन का निधन हो गया. तब उनके पुत्र युवराज किरीट बिक्रम किशोर माणिक्य छोटे थे. ऐसे में प्रजा ने एक रीजेंसी काउंसिल बनाकर राजकाज का काम महारानी कंचन प्रभा देवी (Maharani Kanchan Prabha Devi) ने सौंप लिया. कंचनप्रभा पन्ना के महाराज की सबसे बड़ी बेटी थीं और 17 साल की उम्र में उनका बीर बिक्रम से विवाह हुआ था. महाराजा बीर बिक्रम की मौत के बाद सारी ज़िम्मेदारी कंचनप्रभा पर आ गई. इस दौरान राज्य पर बाहरी और भीतरी शक्तियों से लगातार ख़तरा बना हुआ था.

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इस बीच राजभवन के भीतर से ही षड्यंत्र की शुरुआत होने लगी. दरअसल, राजा बीर बिक्रम के एक सौतेले भाई दुर्जय किशोर भी हुआ करते थे. जो हमेशा से ही राजा बनना चाहता था. कंचन प्रभा और दुर्जय किशोर की भी नहीं बनती थी. इस बीच दुर्जय किशोर ने कंचनप्रभा को बर्बाद करने के लिए अब्दुल बारिक उर्फ़ गेड़ू मियां से हाथ मिला लिया. अब्दुल बारिक तब उस इलाक़े के सबसे रईस लोगों में से एक था और ‘अंजुमन-इ इस्लामिया’ संगठन का लीडर भी था. इस संगठन को ‘मुस्लिम लीग’ का समर्थन था. मुस्लिम लीग ‘चिटगांव’ और ‘टिप्पेरा’ को पाकिस्तान में मिलाने की पुरज़ोर कोशिश कर रहा था.

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दुर्जय किशोर और अब्दुल बारिक हर हाल में त्रिपुरा को पाकिस्तान में मिलाने लगे हुये थे. अगर ऐसा होता तो त्रिपुरा की सत्ता दुर्जय के हाथ में आ जाती. लेकिन इनके सामने महारानी कंचनप्रभा देवी चट्टान बनकर खड़ी हो गयीं. 11 जून 1947 को ‘त्रिपुरा काउंसिल’ ने एक नोटिफ़िकेशन निकाला और जनता को सूचित करते हुए कहा कि महाराजा बीर बिक्रम त्रिपुरा को पहले ही भारत में मिलाने का निर्णय ले चुके हैं और त्रिपुरा की तरफ़ से ‘संविधान सभा’ में अपना रेप्रेज़ेंटेटिव भी नामजद कर दिया था.

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मुस्लिम लीग थी इस षड़यंत्र के पीछे

इस दौरान अब्दुल बारिक के संगठन ‘अंजुमन-इ इस्लामिया’ ने राज्य का माहौल बिगाड़ने के लिए स्थानीय समर्थन जुटाना शुरू कर दिया और लोगों को भारत के ख़िलाफ़ भड़काने के लिए दुष्प्रचार फ़ैलाने लगा. इस बीच जब महारानी को इसकी ख़बर लगी तो उन्होंने सख्त कदम उठाते हुए परिषद के उन मंत्रियों को इस्तीफ़े के लिए मजबूर कर दिया जो दुर्जय किशोर का समर्थन करते थे. इसके बाद महारानी ने ऐसे मंत्रियों को राज्य से बाहर का रास्ता दिखा दिया और उनके राज्य में घुसने पर पर रोक लगा दी.

सरदार पटेल ने निभाई अहम भूमिका  

दरअसल, महारानी कंचनप्रभा देवी जानती थी कि अगर सरदार पटेल को इसकी ख़बर मिली तो वो इस मामले में कड़ा फ़ैसला लेंगे. महारानी पहले भी अपने पिता के साथ सरदार पटेल से मिल चुकी थीं. अक्टूबर 1947 में महारानी ने ‘बंगाल कांग्रेस कमिटी’ के ज़रिए सरदार पटेल को एक संदेश भिजवाया. ये देख सरदार पटेल तुरंत हरकत में आए और उन्होंने आसाम (असम) के गवर्नर अकबर हैदरी को खत लिखकर त्रिपुरा और मणिपुर के हालत पर नज़र रखने का आदेश दे दिया. इस दौरान महारानी को कुछ समय तक सुरक्षा के लिए शिलॉन्ग में रखा गया.

त्रिपुरा का भारत में विलय

आख़िरकार भारत सरकार की सलाह पर 12 जनवरी, 1948 को महारानी कंचन प्रभा देवी ने ‘रीजेंसी काउंसिल’ भंग कर दी और भारत सरकार से नेगोशिएट करने के लिए स्वयं प्रतिनिधि बन गईं. इसके 1 साल बाद तक स्थिति यथावत बनी रही. महारानी ने त्रिपुरा में किसी भी तरह का कोई विद्रोह नहीं होने दिया. सरदार पटेल त्रिपुरा में कश्मीर जैसी हरकत के सख़्त ख़िलाफ़ थे. आख़िरकार 9 सितंबर, 1949 को त्रिपुरा के विलय डॉक्यूमेंट पर दस्तखत हुए और 15 अक्टूबर, 1949 को त्रिपुरा का भारत में आधिकारिक तौर पर विलय हो गया.

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सन 1956 में त्रिपुरा को यूनियन टेरिटरी का दर्ज़ा मिला. इसके बाद सन 1972 में त्रिपुरा (Tripura) को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा भी मिल गया. 15 फ़रवरी 1989 को महारानी कंचन प्रभा देवी का निधन हो गया था.

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