कहानी ‘Mysore Sandal Soap’ की, जब दुनिया युद्ध में व्यस्त थी, तब हिंदुस्तान ने बनाया था ये साबुन

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Mysore Sandal Soap: भारत में साबुन के कितने ब्रांड आये और कितने गये, लेकिन मैसूर सैंडल सोप (Mysore Sandal Soap) आज भी अपनी एक अलग पहचान बनाये हुये है. इसके पीछे की असल वजह है इसने कभी भी अपनी गुणवत्ता के साथ कॉम्प्रोमाइज़ नहीं किया. देश की सबसे पुराने और महंगे साबुन में से एक ‘मैसूर सैंडल’ आज भी शुद्ध चंदन की लकड़ियों से निकले तेल से तैयार किया जाता है. इस साबुन के इस्तेमाल की दूसरी ख़ास वजह थी, इसका शाही होना! लोग आज भी यही मानते हैं कि मैसूर सैंडल सोप शाही लोगों की शाही पसंद है. यही कारण है कि ये साबुन पिछले 106 सालों से दुनियाभर में अपनी ख़ुशबू बिखेर रहा है.

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आज भले ही हमारे बाथरूम तरह-तरह के फ्रग्नेंस सोप से महक रहे हों, लेकिन उस दौर में मैसूर सैंडल सोप (Mysore Sandal Soap) लोगों की पहली पसंद हुआ करता था. आज भी 50 और 60 के दशक के अधिकतर लोग नहाने के लिए इसी साबुन का इस्तेमाल करते हैं. तो चलिए आज आपको भारत के इसी ऐतिहासिक के बनने के पीछे की दिलचस्प कहानी बताते हैं.

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Mysore Sandal Soap बनने की दिलचस्प कहानी

दरअसल, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान चंदन का व्यापार थम जाने की वजह से मैसूर से चंदन की लकड़ियों का विदेश जाना बंद हो गया था. युद्ध की वजह से व्यापार नीतियां तो प्रभावित हुईं ही, साथ ही व्यापार के कई मार्ग भी सुरक्षित नहीं रहे. ऐसे में मैसूर में लगातार चंदन की लकड़ियों का ढेर लग रहा था. क्योंकि उस समय पूरी दुनिया में सर्वाधिक चंदन का उत्पादन मैसूर में होता था. मैसूर के शासक कृष्णराजा वोडियार चतुर्थ (Krishnaraja Wodeyar IV) राज्य में चंदन की लकड़ियों के ढेर से परेशान थे.

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इस दौरान मैसूर के शासक कृष्णराजा वोडियार चतुर्थ के सेवादार अक्सर महाराज के लिए ‘चंदन के तेल’ से नहाने का प्रबंध करते थे. महाराज को भी इस तेल की ख़ुशबू बेहद पसंद थी. धीरे-धीरे चंदन का ये तेल साबुन में बदला गया. महाराज अब रोजाना ‘चंदन के तेल’ से बने साबुन से नहाने लगे. इस दौरान महाराजा को ख्याल आया कि जो साबुन वो ख़ुद इस्तेमाल कर रहे हैं, उसे उनकी प्रजा भी तो कर सकती है. इस तरह से राजा के दिमाग़ में चंदन की लकड़ियों से तेल निकालकर बड़ी मात्रा में साबुन बनाने के ख्याल से ही मैसूर सैंडल सोप (Mysore Sandal Soap) की शुरुआत हुई थी.

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मैसूर के शासक कृष्णराजा वोडियार चतुर्थ (Nalvadi Krishnaraja Wodeyar) ने जब ये आइडिया दीवान मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के साथ साझा किया तो उन्होंने भी इसमें हामी भर दी और फिर इस पर काम शुरू हो गया. इस दौरान महाराजा ने साबुन बनाने की ज़िम्मेदारी विश्वेश्वरैया को सौंपी और उन्होंने एक ऐसे साबुन की कल्पना की जो मिलावटी ना हो और सस्ता भी रहे. इस दौरान उन्होंने बॉम्बे (मुंबई) के तकनीकी विशेषज्ञों को आमंत्रित किया गया. इसके बाद भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) के परिसर में साबुन बनाने के प्रयोगों की व्यवस्था की गई.

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प्रथम विश्व युद्ध के दौरान की शुरुआत

महाराजा द्वारा साबुन बनाने की तकनीक के लिए औद्योगिक रसायनज्ञ सोसले गरलापुरी शास्त्री, जिन्हें ‘साबुन शास्त्री’ भी कहा जाता है, को बुलाया भेजा गया. इसके बाद शास्त्री को साबुन बनाने की तकनीक जानने के लिए इंग्लैंड भेजा गया. इंग्लैंड से लौटने के बाद शास्त्री ने महाराजा वोडियार व दीवान से मुलाकात की. इसके बाद ‘शाही परिवार’ की देखरेख में विदेश से चंदन की लकड़ियों से तेल निकालने वाली मशीनों का आयात किया गया और फिर बैंगलोर में एक कारखाना स्थापित किया गया. बात 10 मई 1916 की है. इस दौरान जब पूरी दुनिया ‘विश्व युद्ध’ की मार झेल रहा था, तब मैसूर के महाराजा ने भारत को उसका पहला स्वदेशी साबुन सौगात में दिया था.

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की गई थीज़बरदस्त मार्केटिंग

भारत के इस सबसे पुराने साबुन को बनाने का श्रेय मैसूर के ‘शाही परिवार’ को जाता है. देशभर में इसकी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए ज़बरदस्त मार्केटिंग भी की गई थी. दरअसल, उस दौर में कई अन्य विदेशी साबुन मार्केट में उपलब्ध थे. ऐसे में मैसूर के शाही घराने ने देशभर में इस साबुन के साइनबोर्ड लगवाने का फ़ैसला किया. इस दौरान ट्राम टिकट से लेकर माचिस की डिब्बियों पर भी इस साबुन का प्रचार किया गया. इतना ही नहीं आज़ादी से पहले कराची में इस साबुन के प्रचार के लिए ‘ऊंट का जुलूस’ भी निकाला गया था.

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 देशभर में बन गया मशहूर

सन 1918 में देश का ये शाही साबुन जैसे ही बाज़ारों में आया तो लोगों ने इसे हाथों हाथ ख़रीद लिया. इस दौरान साबुन में असली चंदन के तेल का इस्तेमाल होना और इसका शाही घराने से ताल्लुक रखने की वजह से भी ये साबुन काफ़ी लोकप्रिय बना गया था. मैसूर के शाही परिवार का नाम शामिल की वजह से केवल आम लोगों ने ही नहीं, बल्कि देश के अन्य शाही घरानों ने भी इस साबुन को हाथों हाथ लिया. कुछ ही समय बाद इस साबुन का व्यापार कर्नाटक से निकलकर पूरे देश में फ़ैल गया. इसके बाद सन 1944 में कर्नाटक के शिमोगा में चंदन के तेल का एक और कारखाना स्थापित किया गया.

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आज़ादी के बाद मैसूर सैंडल सोप (Mysore Sandal Soap) के सभी कारखाना कर्नाटक सरकार के अधिकार क्षेत्र में आ गए. सन 1980 में सरकार ने इन कारखानों का विलय Karnataka Soaps and Detergents Limited में कर लिया. सन 1990 के दशक में भारत में कई नई कंपनियों के आगमन से इस ‘मैसूर सैंडल सोप’ को कड़ी प्रतिस्पर्धा मिलनी शुरू हो गई. इस दौरान कंपनी को लगातार घाटा होने लगा और ये क़र्ज़ में डूब गयी. बावजूद इसके कंपनी खड़ी रही और साल 2003 तक अपने सारे कर्ज ख़त्म करने के बाद भी गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया गया.

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धोनी बने थे पहले ब्रांड अम्बेस्डर

साल 2003 से साल 2006 के बीच मैसूर सैंडल सोप (Mysore Sandal Soap) ने काफ़ी कमाई की. इस दौरान कंपनी ने साल 2006 में पूर्व भारतीय क्रिकेट कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को ‘मैसूर सैंडल सोप’ का ब्रांड एंबेसडर नियुक्त किया. धोनी ‘मैसूर सैंडल सोप’ को बढ़ावा देने वाले पहले लोकप्रिय व्यक्ति थे.

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मैसूर सैंडल सोप (Mysore Sandal Soap) दुनिया का एकमात्र साबुन है जो आज भी सौ फ़ीसदी शुद्ध चंदन के तेल से बनाया जाता है. इसमें पैचौली, वीटिवर, नारंगी, जीरियम और पाम गुलाब जैसे अन्य प्राकृतिक तेलों का भी उपयोग किया जाता है. आज अपनी इसी ख़ासियत के चलते ये साबुन केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी इसकी काफ़ी डिमांड है. 

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