तारा रानी: स्वतंत्रता की लड़ाई में वो गुमनाम सेनानी, जिसके साहस के आगे अंग्रेज़ों ने टेक दिए घुटने

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Tara Rani Srivastava: वो 1942 का समय था. जब दूसरा विश्व युद्ध दुनिया के टुकड़े-टुकड़े कर रहा था, और प्रमुख महाशक्तियां नियंत्रण हासिल करने की कोशिश कर रही थीं. उस दौरान वरिष्ठ मंत्री स्टैनफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में ब्रिटिश राज ने युद्ध में भारत की मदद मांगी. उस दौरान क्रिप्स मिशन नाम का ये मिशन कांग्रेस लीडर्स का समर्थन और सहयोग प्राप्त करने में विफल रहा.

इसके बाद 8 अगस्त को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के बॉम्बे अधिवेशन में खलबली मच गई. महात्मा गांधी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन‘ की शुरुआत की घोषणा करते हुए गोवालिया टैंक मैदान में अपना प्रसिद्ध ‘करो या मरो‘ भाषण दिया था. भले ही इस सामूहिक विरोध को भारत से एक व्यवस्थित ब्रिटिश वापसी माना जाता था, फिर भी ब्रिटिश बढ़ती क्रांति को तोड़ने के लिए अपनी ज़िद पर थे.

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जबकि अधिकांश भारतीय नेताओं को बिना किसी मुकदमे के जेल में डाल दिया गया था, जनता के साथ संपर्क को रोकने के लिए महात्मा गांधी के भाषण के कुछ घंटों के भीतर, सैकड़ों और हज़ारों नागरिकों ने स्वतंत्रता के लिए एक ज्वलंत जुनून के साथ ब्रिटिश शासन का विरोध करना जारी रखा. जबकि हमारी इतिहास की किताबें स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाली कुछ महिलाओं के नामों को उजागर करती हैं, ये वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनमें से कई गुमनाम और अनसुनी रह जाती हैं.

ये वो महिलाएं नहीं थीं, जो कुलीन पृष्ठभूमि से आई थीं या जिनके पास शेखी बघारने के लिए डिग्रियां थीं. वे सामान्य महिलाएं थीं, जिनके पास कोई औपचारिक शिक्षा या बहुत कम स्कूली शिक्षा नहीं थी. वे गरीबी से त्रस्त और रूढ़िवादी घरों में पले-बढ़े और फिर भी एक बेजोड़ भावना और प्रतिबद्धता के साथ संघर्ष में शामिल होने का फ़ैसला किया. इन्हीं में से एक गुमनाम फ़्रीडम फ़ाइटर तारा रानी श्रीवास्तव भी थीं.

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कौन थीं तारा रानी श्रीवास्तव?

अंग्रेज़ों से भारत को आज़ादी दिलाने में तारा रानी श्रीवास्तव की अहम भूमिका थी. लेकिन ज़्यादातर लोग उनके नाम से अनजान होंगे. पटना शहर के क़रीब सारण जिले में जन्मी तारा रानी श्रीवास्तव ने एक स्वतंत्रता सेनानी फूलबेंदू बाबू से शादी की. उनकी शादी काफ़ी यंग एज में हो गई थी.

तारा ने महिलाओं को प्रदर्शन करने के लिए किया प्रेरित

जहां एक तरफ़ ज़्यादातर महिलाओं को बुनियादी अधिकारों से वंचित कर दिया गया और उन्हें चार दीवारी में रहने को मजबूर कर दिया गया. वहीं, दूसरी तरफ़ उन्होंने विरोध के लिए गांधी के आह्वान पर ध्यान दिया और अन्य महिलाओं को भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित किया.

साल 1942 में तारा और उनके पति फूलबेंदू ने एक ऐसा ही प्रदर्शन शुरू किया, जहां उन्होंने अपने से समान विचारों वाले लोगों को एकत्रित किया और सिवान पुलिस स्टेशन की ओर कूच किया. उनका उद्देश्य थाने की छत पर तिरंगा फ़हराकर अंग्रेजों के खिलाफ़ एक एकीकृत भारत की शक्ति का दावा करना था.

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आंखों के सामने लगी थी पति को गोली

पुलिस ने इस विरोध को रोकने की भरपूर कोशिश की. जब प्रदर्शनकारियों के लिए पुलिस के मौखिक आदेश उन्हें दूर करने में विफ़ल रहे, तो उन्होंने शारीरिक बल के प्रदर्शन का सहारा लिया. प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज किया गया. जब लाठियों से भी उनका हौसला नहीं टूटा तो पुलिस ने फ़ायरिंग कर दी.

तारा ने इस दौरान अपनी आंखों के सामने हसबैंड को गोली लगते हुए देखा था और ज़मीन पर गिर जाता है. किसी ने सोचा होगा कि उनके पति पर हुए हमले से वो अपने कदम पीछे खींच लेंगी, लेकिन तारा ने वो कर दिखाया, जिसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था. वो जल्दी से अपने पति की मदद के लिए दौड़ीं और उन्होंने जल्दी से उनके घावों को अपनी साड़ी से फटे कपड़े की पट्टियों से बांध दिया.

फिर भी वो रुकी नहीं. उन्हें पुलिस स्टेशन तक कूच जारी रखा. जब तक वो वापस आईं, फूलबेंदू ने अपना दम तोड़ दिया था. 15 अगस्त 1942 को उनके पति के देश के लिए बलिदान के सम्मान में छपरा जिले में एक प्रार्थना सभा आयोजित की गई. अपने पति की मृत्यु के बावजूद, वो 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता और विभाजन तक स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा रहीं.

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तारा रानी ने अपने पति के ऊपर अपने देश को रखा और देश के लिए ही अपना जीवन समर्पित कर दिया. 

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