ईशर सिंह: वो महान सिख योद्धा जिसके साहस के आगे अफ़ग़ानों ने टेक दिये थे घुटने

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The Great Sikh Worrier Ishar Singh: बात सन 1897 की है. भारत में अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह और आकस्मिक गतिविधियां बढ़ने लगीं, जिसका फ़ायदा उठाने के मकसद से अफ़गान लूटेरों ने भारत के पंजाब प्रांत पर धावा बोल दिया था. पंजाब प्रांत में लगातार अफ़ग़ानों के आक्रमण को देखते हुये ‘ब्रिटिश भारतीय सेना’ ने अगस्त 1897 में लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन हौटन के नेतृत्व में 36वीं सिख बटालियन की 5 टुकड़ियों को ब्रिटिश भारत (वर्तमान में पकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा) की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर भेज दिया. इस दौरान इन 5 टुकड़ियों को ‘समाना हिल्स’, ‘कुरग’, ‘संगर’, ‘सहटोप धार’ और ‘सारागढ़ी’ में तैनात किया गया था.

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अंग्रेज़ इस अस्थिर क्षेत्र पर नियंत्रण पाने में आंशिक रूप से सफल रहे थे, लेकिन आदिवासी पश्तून समय-समय पर ब्रिटिश कर्मियों पर हमला करते रहे. इस प्रइलाके में सिख साम्राज्य के शासक रणजीत सिंह द्वारा निर्मित क़िलों की एक पूरी श्रृंखला थी. इनमें ‘क़िला लॉकहार्ट’ (हिंदू कुश पहाड़ों की समाना रेंज पर) और कुछ मील की दूरी पर स्थित ‘क़िला गुलिस्तान’ (सुलेमान रेंज) प्रमुख थे. इन दोनों क़िलों को एक-दूसरे को दिखाई न देने के कारण ‘सारागढ़ी’ को एक हेलियोग्राफ़िक संचार पोस्ट के रूप में बीच में बनाया गया था. इस दौरान चट्टानी रिज पर स्थित ‘सारागढ़ी पोस्ट’ में लूप-होल वाली प्राचीर के साथ एक छोटा सा ‘ब्लॉक हाउस’ और ‘सिग्नलिंग टॉवर’ भी लगाया गया था.  

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27 अगस्त से 11 सितंबर के बीच पश्तूनों द्वारा भारत के कई क़िलों को कब्ज़ा करने के कई जोरदार प्रयास किये गये. इस बीच 3 सितंबर और 9 सितंबर 1897 को अफ़रीदी आदिवासियों ने अफ़गानों के साथ मिल कर ब्रिटिश सेना के ‘फ़ोर्ट गुलिस्तान’ पर हमला कर दिया. इस दौरान पश्तूनों और अफ़गानों का नेतृत्व गुल बादशाह कर रहा था. लेकिन अफ़ग़ानों के इन दोनों ही हमलों को ब्रिटिश-भारतीय सेना की ’36वीं सिख रेजिमेंट’ ने नाकाम कर दिये थे.  

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12 सितंबर 1897 को एक बार फिर से क़रीब 12,000 से 24,000 अफ़ग़ानिस्तान के ओरकज़ई और अफ़रीदी आदिवासियों से गोगरा के पास समाना सुक और सारागढ़ी के आसपास ‘फ़ोर्ट लॉकहार्ट’ से ‘फ़ोर्ट गुलिस्तान’ के क़रीब गुज़रते हुए देखा गया. इस बीच हज़ारों की संख्या में आये अफ़गानों ने सारागढ़ी में ‘सिग्नलिंग पोस्ट’ की चौकी पर हमला बोल दिया और क़िले को भी घेर लिया. अफ़गानों को इतनी भारी संख्या में देख भारतीय सेना की टुकड़ी घबरा गई.  

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इस बीच सिपाही गुरमुख सिंह ने ‘फ़ोर्ट लॉकहार्ट’ में मौजूद कर्नल हॉगटन को इस हमले की जानकारी दी, लेकिन हॉगटन ने सारागढ़ी को तत्काल मदद देने से इंकार कर दिया. ऐसे में ’36वीं सिख बटालियन’ की एक टुकड़ी ने ‘सारागढ़ी’ में अफ़ग़ानों को क़िलों तक पहुंचने से रोकने के लिए आख़िरी दम तक लड़ने का फ़ैसला किया. इस टुकड़ी का नेतृत्व हवलदार ईशर सिंह कर रहे थे, जिसमें केवल 21 सिख सैनिक थे. जबकि दूसरी तरफ़ 12000 से 24000 अफ़ग़ानों की फौज खड़ी थी.  

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पश्तून विद्रोहियों ने उस क़िले को भी घेर लिया जिसकी ज़िम्मेदारी हवलदार ईशर सिंह को सौंपी गई थी. ऐसे में ईशर सिंह के नेतृत्व में क़िले में मौजूद 21 सिख सैनिकों ने आत्मसमर्पण करने से इंकार कर दिया. इस बीच अफ़ग़ानों के हमले में सिपाही भगवान सिंह मारे जाने वाले पहले सैनिक थे और नायक लाल सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए. इस बीच पश्तूनों का सरदार ईशर सिंह को आत्मसमर्पण करने के लिए लुभाने का वादा करता है. लेकिन ईशर सिंह के आगे उसकी एक न चली. ऐसे में गुस्साए पश्तूनों ने क़िले के गेट खोलने के लिए दो दृढ़ प्रयास किए गए, लेकिन असफल रहे. लेकिन बाद में दीवार तोड़ अंदर घुस गए.

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जवानों की संख्या कम हो रही थी, ईशर सिंह के हौंसले बढ़ रहे थे 

क़िले की दीवार टूटने के बाद पश्तूनों और सरदार ईशर सिंह की सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ. इस बीच हवलदार ईशर सिंह ने अपने सिपाहियों को आंतरिक कवच में जाकर मोर्चा संभालने का आदेश दिया और ख़ुद अपने सैनिकों को कवर करने लगे. लेकिन कुछ समय बाद आंतरिक कवच के टूटने से पश्तूनों के साथ-साथ ईशर सिंह का एक सैनिक भी शहीद हो गया. हज़ारों की संख्या में मौजूद अफ़ग़ानों के सामने ईशर सिंह के जवानों की संख्या कम हो रही थी, लेकिन ईशर सिंह के हौंसले बढ़ते ही जा रहे थे.

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युद्ध जैसे जैसे आगे बढ़ रहा था, ईशर सिंह की सेना कम होती जा रही थी, लेकिन एक-एक सिख योद्धा मरते-मरते भी पश्तूनों पर भरी पड़ रहा था. इस बीच 12000 की संख्या वाले पश्तून विद्रोही भी कम दिखने लगे, लेकिन तब तब वक़्त काफी बीत चुका था. आख़िरकार ईशर सिंह समेत उनकी सेना के एक जवान गुरमुख सिंह को छोड़कर सभी जवान शहीद हो गये. गुरमुख सिंह वही सैनिक था कर्नल हौथटन को युद्ध की एक एक घटना से अवगत करा रहा था. अन्तिम सिख रक्षक के तौर पर गुरमुख सिंह ने शहीद होने से पहले अकेले ही 20 अफ़गान विद्रोहियों को मार गिराया और मरते दम तक लगातार ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ बोलते रहे.

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21 सिखों के इस पराक्रम को सारागढ़ी का युद्ध (Battle of Saragarhi) के नाम से भी जाना जाता है. इसे सैन्य इतिहास के सबसे लंबे अंत वाले युद्ध (Last-Stand Battle) में से एक माना जाता है. इस युद्ध में शामिल इन सभी 21 सैनिकों को मरणोपरांत ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ़ मेरिट’ से सम्मानित किया गया था, जो उस समय भारतीय सैनिकों को मिलने वाला ‘सर्वोच्च वीरता पुरस्कार’ था. आज भारतीय सेना की ‘सिख रेजिमेंट’ की ‘चौथी बटालियन’ हर साल 12 सितंबर को ‘सारागढ़ी दिवस’ के रूप में मनाती है.

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कौन थे हवलदार ईशर सिंह के वो सैनिक

इन 21 सिख योद्धाओं में हवलदार ईशर सिंह के अलावा नायक लाल सिंह, लांस नायक चंदा सिंह, सिपाही राम सिंह, सिपाही भगवान सिंह, सिपाही भगवान सिंह, सिपाही बूटा सिंह, सिपाही नन्द सिंह, सिपाही नारायण सिंह, सिपाही गुरमुख सिंह, सिपाही गुरमुख सिंह, सिपाही सुंदर सिंह, सिपाही जीवन सिंह, सिपाही जीवन सिंह, सिपाही साहिब सिंह, सिपाही उत्तम सिंह, सिपाही हीरा सिंह, सिपाही राम सिंह, सिपाही दया सिंह, सिपाही भोला सिंह, सिपाही जीवन सिंह शामिल थे.  

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