राजनीति और असल ज़िन्दगी में ‘अटल’ रहने वाले कवि वाजपेयी जी की 10 कविताएं

Sanchita Pathak

एक ऐसी शख़्सियत जिन्होंने विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर भाषण देते हुए कहा था, ‘स्पीकर महोदय, ये रहा मेरा इस्तीफ़ा’

एक ऐसे कवि, जिनकी सरल और भावपूर्ण कविताएं दुश्मनों और अलग विचारधारा वालों को भी पसंद आती हैं.

एक ऐसे इंसान, जो नाम से ही नहीं, काम से भी ‘अटल’ हैं.

अटल बिहारी वाजपेयी… एक शक्तिशाली विज़न वाले नेता और एक ओजपूर्ण कवि भी.

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5 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में जन्मे अटल जी कॉलेज के दिनों से ही राजनैतिक गतिविधियों में शामिल हो गए थे. 1939 में वे आरएसएस से जुड़े. 1947 में वे आरएसएस के प्रचारक बन गए. अटल जी ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में शामिल होने की वजह से जेल भी गए.

गांधी जी की हत्या के बाद आरएसएस पर बैन लगा दिया गया और अटल जी ‘जन संघ’ से जुड़ गए. उनके भाषण इतने प्रभावशाली हुआ करते थे कि देश के पहले प्रधानमंत्री, नेहरू जी ने कहा था कि अटल जी कभी प्रधानमंत्री ज़रूर बनेंगे.

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हुआ भी यही, अटल जी 3 बार(1996-2004) देश के प्रधानमंत्री बने.

दीनदयाल उपाध्याय के बाद ‘जन संघ’ का कार्यभार अटल जी के कंधों पर आ गया जिसे उन्होंने बख़ूबी निभाया.

मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने के बाद, ‘जन संघ’ भी टूट गया. ठीक 1 साल बाद, अटल जी ने आडवाणी जी और भैरों सिंह शेखावत के साथ मिलकर ‘बीजेपी’ की स्थापना की.

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अटल जी ताउम्र अविवाहित रहे और उन्होंने एक बेटी गोद ली.

अपनी कविताओं के बारे में वो कहते हैं कि ‘मेरी कविताएं युद्ध की घोषणा है…’

अटल जी की 10 कविताएं, जो आपको ऊर्जा और स्फ़ूर्ति से भर देंगी-

1. पंद्रह अगस्त की पुकार

पंद्रह अगस्त का दिन कहता:

आज़ादी अभी अधूरी है.

सपने सच होने बाकी है,

रावि की शपथ न पूरी है.

जिनकी लाशों पर पग धर कर

आज़ादी भारत में आई,

वे अब तक हैं खानाबदोश

ग़म की काली बदली छाई.

कलकत्ते के फुटपाथों पर

जो आंधी-पानी सहते हैं.

उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के

बारे में क्या कहते हैं.

हिंदू के नाते उनका दु:ख

सुनते यदि तुम्हें लाज आती.

तो सीमा के उस पार चलो

सभ्यता जहां कुचली जाती.

इंसान जहां बेचा जाता,

ईमान ख़रीदा जाता है.

इस्लाम सिसकियाँ भरता है,

डालर मन में मुस्काता है.

भूखों को गोली नंगों को

हथियार पिन्हाए जाते हैं.

सूखे कंठों से जेहादी

नारे लगवाए जाते हैं.

लाहौर, कराची, ढाका पर

मातम की है काली छाया.

पख्तूनों पर, गिलगित पर है

ग़मगीन गुलामी का साया.

बस इसीलिए तो कहता हूं

आज़ादी अभी अधूरी है.

कैसे उल्लास मनाऊं मैं?

थोड़े दिन की मजबूरी है.

दिन दूर नहीं खंडित भारत को

पुन: अखंड बनाएंगे.

गिलगित से गारो पर्वत तक

आज़ादी पर्व मनाएंगें

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से

कमर कसें बलिदान करें.

जो पाया उसमें खो न जाएं,

जो खोया उसका ध्यान करें.

2. कदम मिलाकर चलना होगा

बाधाएं आती हैं आएं

घिरें प्रलय की घोर घटाएं,

पांवों के नीचे अंगारे,

सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,

निज हाथों में हंसते-हंसते,

आग लगाकर जलना होगा.

कदम मिलाकर चलना होगा.

हास्य-रुदन में, तूफ़ानों में,

अगर असंख्यक बलिदानों में,

उद्यानों में, वीरानों में,

अपमानों में, सम्मानों में,

उन्नत मस्तक, उभरा सीना,

पीड़ाओं में पलना होगा.

कदम मिलाकर चलना होगा.

उजियारे में, अंधकार में,

कल कहार में, बीच धार में,

घोर घृणा में, पूत प्यार में,

क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,

जीवन के शत-शत आकर्षक,

अरमानों को ढलना होगा.

कदम मिलाकर चलना होगा.

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,

प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,

सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,

असफल, सफल समान मनोरथ,

सब कुछ देकर कुछ न मांगते,

पावस बनकर ढ़लना होगा.

कदम मिलाकर चलना होगा.

कुछ कांटों से सज्जित जीवन,

प्रखर प्यार से वंचित यौवन,

नीरवता से मुखरित मधुबन,

परहित अर्पित अपना तन-मन,

जीवन को शत-शत आहुति में,

जलना होगा, गलना होगा.

कदम मिलाकर चलना होगा.

3. एक बरस बीत गया

झुलसाता जेठ मास

शरद चांदनी उदास

सिसकी भरते सावन का

अंतर्घट रीत गया

एक बरस बीत गया

सीकचों मे सिमटा जग

किंतु विकल प्राण विहग

धरती से अम्बर तक

गूंज मुक्ति गीत गया

एक बरस बीत गया

पथ निहारते नयन

गिनते दिन पल छिन

लौट कभी आएगा

मन का जो मीत गया

एक बरस बीत गया

4. भारत ज़मीन का टुकड़ा नहीं,

भारत ज़मीन का टुकड़ा नहीं,

जीता जागता राष्ट्रपुरुष है.

हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,

पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं.

पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं.

कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है.

यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,

यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है.

इसका कंकर-कंकर शंकर है,

इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है.

हम जियेंगे तो इसके लिये

मरेंगे तो इसके लिये.

5. मैं अखिल विश्व का गुरू महान

मैं अखिल विश्व का गुरू महान,

देता विद्या का अमर दान,

मैंने दिखलाया मुक्ति मार्ग

मैंने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान.

मेरे वेदों का ज्ञान अमर,

मेरे वेदों की ज्योति प्रखर

मानव के मन का अंधकार

क्या कभी सामने सका ठहर?

मेरा स्वर नभ में घहर-घहर,

सागर के जल में छहर-छहर

इस कोने से उस कोने तक

कर सकता जगती सौरभ भय.

6. हिरोशिमा की पीड़ा

किसी रात को

मेरी नींद अचानक उचट जाती है

आंख खुल जाती है

मैं सोचने लगता हूं कि

जिन वैज्ञानिकों ने अणु अस्त्रों का

आविष्कार किया था

वे हिरोशिमा-नागासाकी के भीषण

नरसंहार के समाचार सुनकर

रात को कैसे सोए होंगे?

क्या उन्हें एक क्षण के लिए सही

ये अनुभूति नहीं हुई कि

उनके हाथों जो कुछ हुआ

अच्छा नहीं हुआ!

यदि हुई, तो वक़्त उन्हें कटघरे में खड़ा नहीं करेगा

किन्तु यदि नहीं हुई तो इतिहास उन्हें

कभी माफ़ नहीं करेगा!

7. पड़ोसी से

एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,

पर स्वतन्त्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा.

अगणित बलिदानों से अर्जित यह स्वतन्त्रता,

अश्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्वतन्त्रता.

त्याग तेज तपबल से रक्षित यह स्वतन्त्रता,

दु:खी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतन्त्रता.

इसे मिटाने की साजिश करने वालों से कह दो,

चिंगारी का खेल बुरा होता है.

औरों के घर आग लगाने का जो सपना,

वो अपने ही घर में सदा खरा होता है.

अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र ना खोदो,

अपने पैरों आप कुल्हाड़ी नहीं चलाओ.

ओ नादान पडोसी अपनी आंखें खोलो,

आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ.

पर तुम क्या जानो आजादी क्या होती है?

तुम्हे मुफ़्त में मिली न क़ीमत गई चुकाई.

अंग्रेजों के बल पर दो टुकडे पाये हैं,

मां को खंडित करके तुमको लाज ना आई?

अमरीकी शस्त्रों से अपनी आजादी को

दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो.

दस बीस अरब डालर लेकर आने वाली बर्बादी से

तुम बच लोगे यह मत समझो.

धमकी, जिहाद के नारों से, हथियारों से

कश्मीर कभी हथिया लोगे यह मत समझो.

हमलों से, अत्याचारों से, संहारों से

भारत का शीष झुका लोगे यह मत समझो.

जब तक गंगा मे धार, सिंधु मे ज्वार,

अग्नि में जलन, सूर्य में तपन शेष,

स्वातन्त्र्य समर की वेदी पर अर्पित होंगे

अगणित जीवन यौवन अशेष.

अमरीका क्या संसार भले ही हो विरुद्ध,

काश्मीर पर भारत का सर नही झुकेगा

एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते,

पर स्वतन्त्र भारत का निश्चय नहीं रुकेगा.

8. झुक नहीं सकते

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

सत्य का संघर्ष सत्ता से

न्याय लड़ता निरंकुशता से

अंधेरे ने दी चुनौती है

किरण अंतिम अस्त होती है

दीप निष्ठा का लिये निष्कंप

वज्र टूटे या उठे भूकंप

यह बराबर का नहीं है युद्ध

हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध

हर तरह के शस्त्र से है सज्ज

और पशुबल हो उठा निर्लज्ज

किन्तु फिर भी जूझने का प्रण

अंगद ने बढ़ाया चरण

प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार

समर्पण की मांग अस्वीकार

दांव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

9. दूध में दरार पड़ गई

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?

भेद में अभेद खो गया.

बंट गये शहीद, गीत कट गए,

कलेजे में कटार दड़ गई.

दूध में दरार पड़ गई.

खेतों में बारूदी गंध,

टूट गये नानक के छंद

सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है.

वसंत से बहार झड़ गई

दूध में दरार पड़ गई.

अपनी ही छाया से बैर,

गले लगने लगे हैं ग़ैर,

ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता.

बात बनाएं, बिगड़ गई.

दूध में दरार पड़ गई.

10. जीवन की ढलने लगी सांझ

जीवन की ढलने लगी सांझ

उमर घट गई

डगर कट गई

जीवन की ढलने लगी सांझ.

बदले हैं अर्थ

शब्द हुए व्यर्थ

शान्ति बिना खुशियां हैं बांझ.

सपनों में मीत

बिखरा संगीत

ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ.

जीवन की ढलने लगी सांझ.

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