हर भावना, हर एक संवेदना को शब्दों के लिबास में लपेट कर लिखी, ये 20 कविताएं किसी ख़ज़ाने से कम नहीं

Kundan Kumar

पेशे से इंसान जो भी है, मन के किसी कोने में वो एक कवि भी होता है. हम अपनी पकी-अधपकी संवेदनाओं को, कभी न कभी कविता की शक्ल देने की कोशिश ज़रूर करते हैं. कविता वो माध्यम है, जिसमें हर शब्द को भावनाओं के समुद्र में डूबो कर वाक्यों में सजाया जाता है. हिंदी और उर्दू साहित्य में कवियों-कवियत्रियों ने हर भावना, हर सिचुएशन और लगभग हर रस की ऐसी-ऐसी कृतियां लिखी हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद संपूर्ण सा महसूस होता है. हमने पूरी कोशिश की है कि इन किवताओं के माध्यम से इस कला के सभी रसों का आनंद आपको दे सकें. हम इस लिस्ट के माध्यम से किसी कवि या किसी कविता के श्रेष्ठ होने का दावा नहीं कर रहे.

आनंद लीजिए…

1.अग्निपथ

वृक्ष हों भले खड़े,

हों घने हों बड़े,

एक पत्र छाँह भी,

माँग मत, माँग मत, माँग मत,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

तू न थकेगा कभी,

तू न रुकेगा कभी,

तू न मुड़ेगा कभी,

कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

यह महान दृश्य है,

चल रहा मनुष्य है,

अश्रु स्वेद रक्त से,

लथपथ लथपथ लथपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

-हरिवंश राय बच्चन

2.जो तुम आ जाते एक बार

जो तुम आ जाते एक बार

कितनी करूणा कितने संदेश

पथ में बिछ जाते बन पराग

गाता प्राणों का तार तार

अनुराग भरा उन्माद राग

आँसू लेते वे पथ पखार

जो तुम आ जाते एक बार

हँस उठते पल में आर्द्र नयन

धुल जाता होठों से विषाद

छा जाता जीवन में बसंत

लुट जाता चिर संचित विराग

आँखें देतीं सर्वस्व वार

जो तुम आ जाते एक बार

– महादेवी वर्मा

3.तोड़ती पत्थर

वह तोड़ती पत्थर;

देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-

वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;

श्याम तन, भर बंधा यौवन,

नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ,

करती बार-बार प्रहार:-

सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;

गर्मियों के दिन, 

दिवा का तमतमाता रूप;

उठी झुलसाती हुई लू

रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगीं छा गई,

प्रायः हुई दुपहर :-

वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;

देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से

जो मार खा रोई नहीं,

सजा सहज सितार,

सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,

ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-

“मैं तोड़ती पत्थर।”

– सुर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

4.वीर

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं

स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं 

सच है, विपत्ति जब आती है, 

कायर को ही दहलाती है, 

सूरमा नहीं विचलित होते,

क्षण एक नहीं धीरज खोते,

विघ्नों को गले लगाते हैं,

काँटों में राह बनाते हैं। 

मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं,

संकट का चरण न गहते हैं,

जो आ पड़ता सब सहते हैं,

उद्योग-निरत नित रहते हैं,

शुलों का मूळ नसाते हैं,

बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,

टिक सके आदमी के मग में?

ख़म ठोंक ठेलता है जब नर

पर्वत के जाते पाव उखड़,

मानव जब जोर लगाता है,

पत्थर पानी बन जाता है।

गुन बड़े एक से एक प्रखर,

हैं छिपे मानवों के भितर,

मेंहदी में जैसी लाली हो,

वर्तिका-बीच उजियाली हो,

बत्ती जो नहीं जलाता है,

रोशनी नहीं वह पाता है।

– रामधारी सिंह ‘दिनकर’

5.पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं, मैं सुरबाला के 

गहनों में गूँथा जाऊँ,

चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध

प्यारी को ललचाऊँ,

चाह नहीं सम्राटों के शव पर

हे हरि डाला जाऊँ,

चाह नहीं देवों के सिर पर

चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,

मुझे तोड़ लेना बनमाली,

उस पथ पर देना तुम फेंक!

मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,

जिस पथ पर जावें वीर अनेक!

– माखनलाल चतुर्वेदी

6. जो पुल बनाएंगे

जो पुल बनाएंगे

वे अनिवार्यत:

पीछे रह जाएंगे। 

सेनाएँ हो जाएंगी पार

मारे जाएंगे रावण

जयी होंगे राम,

जो निर्माता रहे

इतिहास में

बन्दर कहलाएंगे

– अज्ञेय

7. यह कदंब का पेड़

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे। 

मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥ 

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली। 

किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली॥ 

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता। 

उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता॥ 

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता। 

अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता॥ 

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता। 

माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता॥ 

तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे। 

ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे॥ 

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता। 

और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता॥ 

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती। 

जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं॥ 

इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे। 

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे॥

– सुभद्रा कुमारी चौहान

8.सत्य

सत्य को लकवा मार गया है

वह लंबे काठ की तरह

पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात

वह फटी–फटी आँखों से

टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात

कोई भी सामने से आए–जाए

सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता

पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा

सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात

सत्य को लकवा मार गया है

गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है

सोचना बंद

समझना बंद

याद करना बंद

याद रखना बंद

दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती

सत्य को लकवा मार गया है

कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है

तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है

ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है

सत्य को लकवा मार गया है

वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है

सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात

वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक

वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक

वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक

लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है

जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा

पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है

जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है

उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है

लगता है, अब वह किसी काम का न रहा

जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा

लोथ की तरह, स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!

– नागार्जुन

9. हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए

हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए

हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े

हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर

हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर

यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है

प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर

हम लड़ेंगे साथी

क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर

बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर

हाथों पर पड़े घट्टों की क़सम खाकर

हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे तब तक

जब तक वीरू बकरिहा

बकरियों का मूत पीता है

खिले हुए सरसों के फूल को

जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते

कि सूजी आँखों वाली

गाँव की अध्यापिका का पति जब तक

युद्ध से लौट नहीं आता

जब तक पुलिस के सिपाही

अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं

कि दफ़्तरों के बाबू

जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर

हम लड़ेंगे जब तक

दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है

जब तक बन्दूक न हुई, तब तक तलवार होगी

जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी

लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी

और हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे

कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता

हम लड़ेंगे

कि अब तक लड़े क्यों नहीं

हम लड़ेंगे

अपनी सज़ा कबूलने के लिए

लड़ते हुए जो मर गए

उनकी याद ज़िन्दा रखने के लिए

हम लड़ेंगे

– पाश

10. एक अजीब दिन

आज सारे दिन बाहर घूमता रहा

और कोई दुर्घटना नहीं हुई।

आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा

और कहीं अपमानित नहीं हुआ।

आज सारे दिन सच बोलता रहा

और किसी ने बुरा न माना।

आज सबका यकीन किया

और कहीं धोखा नहीं खाया।

और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह

कि घर लौटकर मैंने किसी और को नहीं

अपने ही को लौटा हुआ पाया।

– कुंवर नारायण

11.तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है ,

मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है .

उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो ,

इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है .

लगी है होड़ – सी देखो अमीरी औ गरीबी में ,

ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है .

तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के ,

यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है.

– अदम गोंडवी

12.मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूं

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ,

वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ 

एक जंगल है तेरी आँखों में,

मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ 

तू किसी रेल-सी गुज़रती है,

मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ 

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है,

मैं अगर रौशनी में आता हूँ 

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे

और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ,

मैं तुझे भूलने की कोशिश में,

आज कितने क़रीब पाता हूँ 

कौन ये फ़ासला निभाएगा

मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ

– दुष्यंत कुमार

13.जन-गण-मन

मैं भी मरूंगा

और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे

लेकिन मैं चाहता हूं

कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें

फिर भारत भाग्य विधाता मरें

फिर साधू के काका मरें

यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें

फिर मैं मरूं- आराम से

उधर चल कर वसंत ऋतु में

जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है

या फिर तब जब महुवा चूने लगता है

या फिर तब जब वनबेला फूलती है

नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके

और मित्र सब करें दिल्लगी

कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था

कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा॥

– रमाशंकर यादव’विद्रोही’

14. प्रेमपत्र

प्रेत आएगा

किताब से निकाल ले जायेगा प्रेमपत्र

गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खायेगा

चोर आयेगा तो प्रेमपत्र ही चुराएगा

जुआरी प्रेमपत्र ही दांव लगाएगा

ऋषि आयेंगे तो दान में मांगेंगे प्रेमपत्र

बारिश आयेगी तो प्रेमपत्र ही गलाएगी

आग आयेगी तो जलाएगी प्रेमपत्र

बंदिशें प्रेमपत्र ही लगाई जाएंगी

सांप आएगा तो डसेगा प्रेमपत्र

झींगुर आयेंगे तो चाटेंगे प्रेमपत्र

कीड़े प्रेमपत्र ही काटेंगे

प्रलय के दिनों में सप्तर्षि मछली और मनु

सब वेद बचायेंगे

कोई नहीं बचायेगा प्रेमपत्र

कोई रोम बचायेगा कोई मदीना

कोई चांदी बचायेगा कोई सोना

मै निपट अकेला कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेमपत्र

– बद्री नारायण

15.हाथ

उसका हाथ

अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा

दुनिया को

हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.

– केदारनाथ सिंह

16.दोनों ओर प्रेम पलता है

दोनों ओर प्रेम पलता है।

सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!

सीस हिलाकर दीपक कहता–

’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’

पर पतंग पड़ कर ही रहता 

कितनी विह्वलता है!

दोनों ओर प्रेम पलता है।

बचकर हाय! पतंग मरे क्या?

प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?

जले नही तो मरा करे क्या?

क्या यह असफलता है!

दोनों ओर प्रेम पलता है।

कहता है पतंग मन मारे–

’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,

क्या न मरण भी हाथ हमारे?

शरण किसे छलता है?’

दोनों ओर प्रेम पलता है।

दीपक के जलने में आली,

फिर भी है जीवन की लाली।

किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,

किसका वश चलता है?

दोनों ओर प्रेम पलता है।

जगती वणिग्वृत्ति है रखती,

उसे चाहती जिससे चखती;

काम नहीं, परिणाम निरखती।

मुझको ही खलता है।

दोनों ओर प्रेम पलता है।

– मैथलीशरण गुप्त

17. चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती है

चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती

मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है

खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है

उसे बड़ा अचरज होता है:

इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर 

निकला करते हैं| 

चम्पा सुन्दर की लड़की है

सुन्दर ग्वाला है : गाय भैसे रखता है

चम्पा चौपायों को लेकर

चरवाही करने जाती है 

चम्पा अच्छी है

चंचल है

न ट ख ट भी है

कभी कभी ऊधम करेती है

कभी कभी वह कलम चुरा देती है

जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूँ

पाता हूँ – अब कागज गायब

परेशान फिर हो जाता हूँ 

चम्पा कहती है:

तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर

क्या यह काम बहुत अच्छा है

यह सुनकर मैं हँस देता हूँ

फिर चम्पा चुप हो जाती है 

उस दिन चम्पा आई , मैने कहा कि

चम्पा, तुम भी पढ़ लो

हारे गाढ़े काम सरेगा

गांधी बाबा की इच्छा है –

सब जन पढ़ना लिखना सीखें

चम्पा ने यह कहा कि

मैं तो नहीं पढ़ुंगी 

तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं

वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे

मैं तो नहीं पढ़ुंगी 

मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है

ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,

कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता

बड़ी दूर है वह कलकत्ता

कैसे उसे सँदेसा दोगी

कैसे उसके पत्र पढ़ोगी

चम्पा पढ़ लेना अच्छा है! 

चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो , देखा ,

हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो

मैं तो ब्याह कभी न करुंगी 

और कहीं जो ब्याह हो गया

तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी 

कलकत्ता में कभी न जाने दुंगी

कलकती पर बजर गिरे।

– त्रिलोचन

18. रामदास

चौड़ी सड़क गली पतली थी

दिन का समय घनी बदली थी

रामदास उस दिन उदास था

अंत समय आ गया पास था

उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी

धीरे धीरे चला अकेले

सोचा साथ किसी को ले ले

फिर रह गया, सड़क पर सब थे

सभी मौन थे सभी निहत्थे

सभी जानते थे यह उस दिन उसकी हत्या होगी

खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर

दोनों हाथ पेट पर रख कर

सधे क़दम रख कर के आए

लोग सिमट कर आँख गड़ाए

लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी

निकल गली से तब हत्यारा

आया उसने नाम पुकारा

हाथ तौल कर चाकू मारा

छूटा लोहू का फव्वारा

कहा नहीं था उसने आख़िर उसकी हत्या होगी

भीड़ ठेल कर लौट गया वह

मरा पड़ा है रामदास यह

देखो-देखो बार बार कह

लोग निडर उस जगह खड़े रह

लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी

– रघुवीर सहाय

19. रोटी और संसद

एक आदमी

रोटी बेलता है

एक आदमी रोटी खाता है

एक तीसरा आदमी भी है

जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है

वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है

मैं पूछता हूँ–

‘यह तीसरा आदमी कौन है ?’

मेरे देश की संसद मौन है।

– धूमिल

20. सब जीवन बीत जाता है

सब जीवन बीता जाता है

धूप छाँह के खेल सदॄश

सब जीवन बीता जाता है

समय भागता है प्रतिक्षण में,

नव-अतीत के तुषार-कण में,

हमें लगा कर भविष्य-रण में,

आप कहाँ छिप जाता है

सब जीवन बीता जाता है

बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,

मेघ और बिजली के टोंके,

किसका साहस है कुछ रोके,

जीवन का वह नाता है

सब जीवन बीता जाता है

वंशी को बस बज जाने दो,

मीठी मीड़ों को आने दो,

आँख बंद करके गाने दो

जो कुछ हमको आता है

सब जीवन बीता जाता है

– जयशंकर प्रसाद

सभी कविताएं एक से बढ़कर एक हैं. हर कविता पाठक को एक अलग अनुभव देती है. यही कविताओं की ख़ूबसूरती होती है. वो कम शब्दों में एक पूरा संसार बसा देती हैं. 

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