स्कूल वाला 26 जनवरी… परेड, मिठाई, बैग की जगह हाथ में तिरंगा ले जाने वाला 26 जनवरी

Akanksha Thapliyal

हमारे स्कूल में 26 जनवरी की सुबह हमेशा बारिश होती थी. हमारे गोल-मटोल और क्यूट से प्रिंसिपल सर अपना लंबा कोट पहन कर धीरे-धीरे आते और उनके पीछे एक भैय्या बड़ी छतरी लेकर चलते. कभी-कभी तो सर कीचड़ में फिसल भी जाते थे और हम बच्चों की हंसी छूट जाती.

आज भी 26 जनवरी आते ही बड़ी ख़ुशी होती है…. उस दिन ऑफिस की छुट्टी होती है न.

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कितनी ही बड़ी क्यों न हो, ये ख़ुशी उस ख़ुशी का मुकाबला नहीं कर पाती, जो सुबह जल्दी उठ कर White Dress प्रेस करने, जूतों में White पॉलिश लगाने, और कड़क सर्दी में भी नहाने में होती थी. इस ख़ुशी की सीमा जहां ख़त्म होती है, स्कूल में होने वाली 26 जनवरी की परेड की कदमताल वहां से शुरू हुआ करती थी. 

वीकडे में छुट्टी मिलने की ये ख़ुशी शायद स्कूल की Choir में राष्ट्रगान गाने की फीलिंग का मुक़ाबला भी न कर पाए, लेकिन अब इसी ख़ुशी से ख़ुश हो जाते हैं.

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बालों में White रिबन, अच्छे से प्रेस किये हुए कपड़े और हाथ में लिया तिरंगा झंडा शायद अब देर तक सोने के सुकून के आगे याद न रहे, लेकिन वो ख़ुशी कुछ और थी. जब मिठाई के इंतज़ार में उसकी ख़ुशबू से ही काम चलाते थे, छोटे-छोटे पाउच में घर के लिए मिठाई के कुछ टुकड़े बचा कर ले जाते थे.

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अब भले ही न्यूज़ चैनल एक-एक मिनट की ख़बर देते हैं, पहले दिल्ली के राजपथ में ‘झांकियों के विहंगम दृश्य’ के बारे में सोचते थे. घर आ कर जूते भी नहीं उतारे और दूरदर्शन लगा दिया. सेना की टुकड़ी को लीड कर रहे जवान की आवाज़ में वो जोश रौंगटे खड़े कर देता था.

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वहां डांस कर रहे बच्चों को देख कर लगता था, काश यहां हम भी जा पाते. फिर अपनी सटीक हिंदी और स्टाइलिश अंग्रेज़ी में दो आवाज़ें प्रदेशों की झांकी का स्वागत करती. हम बेसब्री से अपने राज्य की झांकी को उन कलाकृतियों में ढूंढते, जैसे वो हमारा एक हिस्सा राजपथ पर प्रदर्शित कर रही हों.

‘अभी तक सो रही हो? झांकी नहीं देखी?’

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हर 26 जनवरी की सुबह मां के फ़ोन से आंख खुलती है. उनके लिए 26 जनवरी की झांकी देखना एक रिवाज है और ये परंपरा तब से चली आ रही है, जब हम ख़ुशी-ख़ुशी में झांकियां देखा करते थे. वो आज भी उसी निश्छल बच्चे की तरह झांकी देखती है, जिसे उन्होंने 20 बरस पहले झांकी का मतलब सिखाया था.

26 जनवरी की तैयारी में टीचर से परमिशन लेकर Choir में प्रैक्टिस करने अब नहीं जाना होता. धूल सी पड़ गयी है उस ख़ुशी पर, जो एक दिन ही सही, हाथों में बैग के बजाये झंडा ले जाने से होती थी… जन, गण, मन गाना अब सिनेमा हॉल में ही याद रहता है.

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Shit! कल से फिर ऑफिस जाना है!

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