Statue of Unity की वो सबसे बड़ी कमी, जिस पर वहां जाने वालों के अलावा किसी की नज़र नहीं पड़ी

Sanchita Pathak

राष्ट्रीय एकता के प्रतीक के रूप में, टूरिज़्म को प्रमोट करने के लिए, पर्यावरणविदों की बातों को नकारते हुए मौजूदा सरकार ने हज़ारों करोड़ रुपए ख़र्च कर लौह पुरुष, सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा बनवा ही दी.

सरकार की तारीफ़, आलोचना हो गई. हज़ारों करोड़ में क्या-क्या हो सकता था, ये भी हमने और आपने देख लिया. 

India Today

इन सबके अलावा एक चीज़ जो बच जाती है, वो है ‘अंदर की बात’, मतलब की Statue of Unity की ज़मीनी हक़ीक़त. इस Statue को देखने के लिए ट्विटर यूज़र Kosha भी गईं और उनकी नज़र पड़ी यहां की कमियों पर जो सरकार को नज़रअंदाज़ नहीं करने चाहिए थे.

Kosha को Statue of Unity में सरकार के Mismanagement के कई उदाहरण मिले. एक Twitter Thread के ज़रिए Kosha ने अपना अनुभव साझा किया.

‘कल मैं विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा देखने गई. 182 मीटर ऊंचा राष्ट्रीय स्मारक… पर ये तस्वीरें तो कुछ और ही कह रही हैं. ऐसी हरकतों के लिए हम लोगों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. पर ये अधूरी कहानी है.’

‘तस्वीर देखकर सिर्फ़ लोगों को ज़िम्मेदार ठहराना ठीक नहीं होगा, सरकार भी उतनी ही ज़िम्मेदार है. सरकार आधे Proposals के साथ विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा को आम जनता के लिए कैसे खोल सकती है?’

‘क्या सरकार सच में चाहती थी कि लोग इसे देखने आएं? हम कड़ी धूप में लगभग 3 घंटे खड़े रहे, 16 बसों के लिए जो हमें प्रतिमा के पास ले जाने वाली थी. 10 हज़ार लोगों के लिए 16 बसें. पार्किंग स्पेस न होने के कारण प्राइवेट गाड़ियों को अंदर जाने की अनुमित नहीं थी.’

‘Mismanagement के लिए जनसंख्या को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. ये नमूना है टूरिस्ट सेंटर की Facilities का.’

‘और इन सब के बावजूद आप उम्मीद करते हैं कि सरकार की आलोचना न की जाए. हज़ारों करोड़ प्रतिमा में लगा दिए लेकिन आम जनता के लिए पार्किंग की जगह, Waiting Area, गाड़ियों और पैदल यात्रियों के लिए अलग रास्ते नहीं बनाए.’

‘प्रतिमा बनाने से पहले जनता की राय लेना तो दूर की बात, उन्होंने ये तक नहीं सोचा कि विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा तक पहुंचने का रास्ता कैसा है!’

Kosha के ट्विट्स पर लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं-

हम आशा करते हैं सरकार इस पहलु पर ज़रूर संज्ञान लेगी. आखिर मामला देश की इज़्ज़त का है. 

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