3 Idiots के रैंचो से चार कदम आगे हैं पुणे के अरविंद, 30 सालों से अनोखे अंदाज़ में पढ़ा रहे हैं बच्चों को साइंस

Pratyush

अपने इर्द-गिर्द कोई कूड़ा नहीं देखना चाहता, लेकिन अगर कहीं कूड़े का ढेर देख लें, तो उसमें कुछ और जोड़ ज़रूर देंगे. कई लोग कूड़ा उठाना शर्म समझते हैं, लेकिन हमारे बीच कोई ऐसा है जो कूड़े में अपनी कला और दिमाग़ जोड़कर उसे ज्ञान बांटने के लिए इस्तेमाल करता है. The Logical Indian ने अपने खास इंटरव्यू में एक ऐसे व्यक्ति का ज़िक्र किया, जो पिछले 30 सालों से बच्चों की विज्ञान की समस्या कूड़े से दूर कर रहा है.

इस व्यक्ति का नाम अरविंद गुप्ता है और ये पुणे के Children’s Science Centre में अपने अनोखे अंदाज़ में बच्चों को खिलौने बनाना सिखाते हैं. ये कठिन साइंस थ्योरी को ‘कूड़े’ का इस्तेमाल करके आसान बना देते हैं. ये वो खिलौने बनाते हैं, जिन्होंने विज्ञान को प्रसिद्ध बनाया है. पिछने 30 सालों में अरविंद गुप्ता ने 1300 ऐसी वीडियोज़ बनाई हैं, जिनसे साइंस की कई थ्योरी आसानी से समझी जा सकती है. इसके अलावा अ​​रविंद कई किताबों के लेखक भी हैं, जैसे ‘Little Toys’, ‘Amazing Activities’, ‘Science from Scrap’, और ‘Science Skills & Thrills: The Best of Arvind Gupta’. ये किताबें अंग्रेज़ी, हिन्दी और ​कई और भाषाओं में है.

कहां से मिली प्रेरणा?

अरविंद ने लॉजिकल इंडियन को बताया कि वो 1970 में IIT कानपुर से पास हुए थे. उस वक़्त एक स्लोगन खूब चर्चा में था, ‘लोगों के पास जाओ, उनके साथ रहो, उन्हें प्यार करो. जो उन्हें पता हो, उससे शुरू करो और उसी से निर्माण करो, जो उनके पास हों’ उन्होंने बताया कि वो होशंगाबाद साइंस टीचिंग प्रोग्राम से काफ़ी प्रेरित थे, जहां साइंस को मज़े-मज़ें में बच्चों को सिखाई जाती थी.

कितने बच्चों से जुड़ चुके हैं अरविंद?

अरविंद इतने सालों में भारत के 3000 से ज़्यादा स्कूलों में अपनी वर्कशॉप दे चुके हैं. इन सूची में हर तरह के स्कूल शामिल थे. उन्होंने बताया कि हर जगह के बच्चों को वर्कशॉप काफ़ी पसंद आती हैं. हर बच्चा खेलना चाहता है, मोटी किताबों में ज्ञान तो है, पर काफ़ी बोरिंग-सा होता है. जब उन्हें इस अंदाज़ में चीज़ें सिखाई जाती हैं, तो वो खाना-पीना सब भूल जाते हैं.

​कैसे खिलौने से जुड़ती है पढ़ाई?

भारत में पारंपरिक खिलौने मिट्टी के बने होते हैं. अरविंद उन चीज़ों का इस्तेमाल करते हैं, जो कोई नहीं करता. इन खिलौनों के साथ वो कई ज़रूरी टॉपिक कवर कर लेते हैं. जैसे हवा और पानी, गणित, ध्वानि, न्यूटन के सिद्धांत, कागज़ के खिलौने, स्पिनिंग टॉयज़, मोटर और जनरेटर से चलने वाले खिलौने. कई खिलौने जैसे बोतल की कार, माचिस की तीली से मॉडल, बॉल ट्रैम्पलिन, पॉलीथीन पैराशूट, ड्रम और कोल्ड ड्रिंक के कैन से पाचन प्रक्रिया समझाते हैं.

उन्होंने बताया कि हर बच्चे को खिलौने पसंद होते हैं. खासतौर से जो घूमते हों, उड़ते हों या शोर मचाते हों. अगर ये माचिस की तीली, प्लास्टिक बोतल जैसी चीज़ें बन जाए, तो वो काफ़ी रुचि दिखाते हैं. हम चाहते हैं कि हर तबके के व्यक्ति के पास ये ज्ञान पहुंचे, वो भी मुफ़्त में.

शिक्षा व्यवस्था में क्या है कमी?

अरविंद ने कहा कि कई सर्वे में ये पाया गया है कि भारत के इंजीनियरिंग, मेडिकल और मैनेजमेंट के छात्र बाकी दुनिया के छात्रों के मुकाबले विश्लेषणात्मक और तार्किक विचारों में काफ़ी पीछे हैं. इसका कारण यहां की शिक्षा व्यवस्था है, जो थ्योरी पर ज़्यादा ज़ोर देती है प्रैक्टिकल पर नहीं. जो टीचर बच्चों को पढ़ाते हैं, वो भी ऐसे की पढ़ कर आए हैं, जिससे बच्चों को पढ़ाई बोरिंग लगती है.

उन्होंने बताया कि होशंगाबाद साइंस टीचिंग प्रोग्राम सरकार द्वारा बंद कर दी गई थी. कोई भी सरकार नहीं चाहती कि कोई उनकी शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाए.

अरविंद जी ने अपनी वेबसाइट पर शिक्षा, पर्यावरण, विज्ञान, गणित और बच्चों की सर्वोत्तम किताबें सबके लिए मुहैया करवाई हैं, जो कोई भी डाउनलोड कर सकता है. उनका कहना है कि हर दिन 15 हज़ार किताबें उनकी साइट से डाउनलोड होती हैं. इसके अलावा वो शॉर्ट फ़िल्मो के ज़रिए भी अपनी बातें समझाते हैं, जो कि कोई भी देख सकता है. इन फ़िल्मों को वालंटियर्स द्वारा 20 भाषाओं में डब किया जा चुका है.

अरविंद की अथक कोशिश को UNESCO, UNICEF, International Toy Research Association, Boston Science Centre, Walt Disney Imagineering and Research जैसी संस्थाओं ने अवॉर्ड से नवाज़ा है. इसके अलावा उन्हें बच्चों के बीच विज्ञान की लोकप्रिय करने के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार (1988), आईआईटी कानपुर के प्रतिष्ठित छात्र पुरस्कार (2000) विज्ञान लोकप्रियता के लिए इंदिरा गांधी पुरस्कार (2008), और थर्ड वर्ल्ड एकेडमी ऑफ़ साइंस अवार्ड (2010) के भी नवाज़ा जा चुका है.

अरविंद की इस सराहनीय कोशिश और समाज में बदलाव के लिए हम इन्हें सलाम करते हैं. 

Source- The Logical Indian

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