चेतना सिंह: वो शहरवाली, जिसने गांव की औरतों के लिए वो किया, जो लोग ऑफ़िस में बैठकर बस सोचते हैं

Sanchita Pathak

दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो अपने आस-पास मौजूद परेशानियों से इतने दुखी हो जाते हैं कि वे उन समस्याओं को मिटाने के लिए कुछ अलग कर गुज़रते हैं. एक छोटी सी पहल, एक छोटा सा कदम कई लोगों की ज़िन्दगियां बदल देता है. हमारे समाज में ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने लीक से हटकर न सिर्फ़ एक अलग पहचान बनाई, बल्कि बहुत से लोगों को अलग पहचान बनाने में मदद भी की.

महिलाओं के हक़ के लिए आवाज़ उठाने वालों की लिस्ट में बहुत से लोगों का नाम जुड़ा है, लेकिन बहुत ही कम लोग होंगे जिन्होंने उनके बीच रहकर उनके उत्थान के लिए काम किया हो.

आज हम रूबरू होंगे एक ऐसी ही शख़्सियत से, जिसने अपने Comfort Zone से बाहर निकलर कई लोगों की क़िस्मत बदल दी. चेतना गाला सिंहा, ये नाम आपके लिए नया हो सकता है पर चेतना के संघर्ष और सफ़लता की कहानी दशकों पुरानी है. अगर 2017 में आपने KBC को Follow किया है, तो शायद ये नाम आपको याद आ जाये, आयुष्मान ख़ुराना के साथ आईं थीं चेतना.

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मायानगरी मुंबई में पैदा हुईं चेतना ने पढ़ाई-लिखाई भी मुंबई से ही की. कॉमर्स और अर्थशास्त्र में तालीम प्राप्त करने के बाद 1970 के दशक में जयप्रकाश नारायण के छात्र आंदोलन में भी उनकी सक्रियता रही. इस आंदोलन में के कारण चेतना ग़रीब और पिछड़े वर्ग के लोगों के संपर्क में ही रहीं.

चेतना ने एक कृषक और सामाजिक कार्यकर्ता से शादी की, जिस कारण उन्हें मुंबई छोड़ महाराष्ट्र के सतारा ज़िले के म्हसवड गांव में आकर बसना पड़ा. आमतौर पर लोग गांव से शहर की ओर जाते हैं लेकिन चेतना ने शहर से गांव का रुख किया.

इस एक निर्णय ने चेतना की ज़िन्दगी की दशा और दिशा दोनों बदल दी. जिस समय चेतना ने गांव का रुख किया था, उस समय गांव में अवसरों का अभाव था. उस वक़्त शहर ही विकसित हो रहे थे. गांव जाकर चेतना को मंगलसूत्र ना पहनने से लेकर जीने के तौर-तरीके पर भी बातें सुननी पड़ी. इसके साथ पानी की कमी, पैसों का अभाव जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ा.

आमतौर पर हम मुसीबतों से परेशान हो जाते हैं, लेकिन चेतना ने हर मुसीबत को एक अवसर के रूप में देखा.

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1986-1987 के दौरान पंचायत राज बिल में संशोधन में हुए, जिसके बाद महिलाओं को पंचायत में 30 प्रतिशत सीट देना अनिवार्य हो गया. इस ऐतिहासिक निर्णय के बाद चेतना ने भी गांव की अन्य महिलाओं को जागरुक करना आरंभ किया. महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए उन्होंने ‘माण फाउंडेशन’ की नींव रखी.

गांववालों को चेतना और माण पर यक़ीन करने में वक़्त लगा लेकिन धीरे-धीरे लोगों ने अपनी समस्यायें चेतना से बांटना शुरू किया. एक दिन एक स्त्री ने उनसे आकर शिकायत कि बैंक कर्मचारी उसकी पूंजी जमा नहीं कर रहे. चेतना उस स्त्री के साथ बैंक तक गईं और उन्हें पता चला कि महिला की पूंजी बहुत कम है, जिसके कारण बैंक उसे अपने पास नहीं रख सकता. चेतना ने निर्णय लिया कि एक ऐसा बैंक होना चाहिए, जो महिलाओं की कम जमा-पूंजी को भी सहज कर रखेगी.

1997 में उन्होंने ‘माण देशी बैंक’ खोला’. ये बैंक महिलाओं का, महिलाओं द्वारा और महिलाओं के लिये आज भी काम करता है.

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माण देशी बैंक खोलना भी आसान नहीं था. जब चेतना ग्रामीण महिलाओं के साथ मिलकर आरबीआई के दफ़्तर पहुंची तो अधिकारियों ने प्रस्ताव में दस्तख़्त के स्थान पर अंगूठे के निशान देखकर उसे नामंज़ूर कर दिया. 6 महीने बाद इन्हीं महिलाओं ने दोबारा प्रस्ताव बनाया और आरबीआई के दफ़्तर गईं, लेकिन इस बार अंगूठे के निशान की जगह उसमें दस्तख़त थे. आज ये बैंक महाराष्ट्र के सबसे बड़े Micro Finance Banks में से एक है.

बैंक तो खुल गया लेकिन उन महिलाओं का क्या जो अपनी नौकरी और मज़दूरी छोड़कर बैंक तक जाने में असमर्थ हों? इस समस्या के निदान के लिए चेतना और उनेक साथ जुड़े लोगों ने घर-घर जाकर बैंकिंग का काम करना शुरू किया. इससे दैनिक मज़दूरी करने वाली महिलाओं को भी बैंकिंग के लाभ मिलने लगे.

गांव की महिलायें सजग होने लगीं, लेकिन उन्हें अपने पास पासबुक रखने में झिझक होती, क्योंकि उन्हें ये डर सताता कि उनकी बचत राशि का पता अगर उनके पतियों को लग गया तो वे उस पैसे को शराब में ख़र्च कर देंगे. इस समस्या का समाधान माण देशी बैंक ने स्मार्ट कार्ड जारी करके किया. ये बैंक आज भी महिलाओं को अपना कारोबार शुरू करने के लिए लोन देता है. ग्रामीण महिलायें भी Entrepreneur बन रही हैं.

Maan Deshi Foundation

इसी बीच एक दिन गांव की ही एक महिला ने बैंक से मोबाईल फ़ोन ख़रीदने के लिए पैसे मांगे. पहले तो चेतना को लगा कि महिला अपने बच्चों की ज़िद पूरी करने के लिए लोन ले रही है. लेकिन पूछने पर महिला ने बताया कि वो पशुओं को लेकर दूर खेतों में जाती है और अपने परिवार से संपर्क में रहने के लिए उसे फ़ोन चाहिए. इस घटना के बाद चेतना को ग्रामीण महिलाओं के लिए बिज़नेस स्कूल खोलने का विचार आया, लेकिन सबसे बड़ी समस्या थी ‘अशिक्षा’. महिलाओं को शिक्षित करने के लिए माण देशी फ़ाउंडेशन ने ऑडियो-विज़ुअल कक्षायें शुरू की. अंगूठा लगाने वाली महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर इस तरह की कक्षाओं में सहभागिता दिखाई. इसके बाद चेतना की पहल से ही ग्रामीण महिलाओं ने मिलकर ‘House Radios’ भी लगाये.

चेतना और उनके फ़ाउंडेशन ने सिर्फ़ महिलाओं को शिक्षित किया बल्कि उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने की हिम्मत भी दी.

महिलाओं को अपना कारोबार शुरू करने के लिए लोन देने के अलावा चेतना बच्चियों की शिक्षा के लिए भी कार्य करती हैं. गांव की कई लड़कियों को साइकिल देकर स्कूल जाने के लिए प्रेरित भी किया जाता है.

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इस सबके बीच एक दिन एक महिला अपना सोना गिरवी रखकर बैंक से कर्ज़ लेने आई. वो बैंक से कर्ज़ अपने बच्चों की शिक्षा या फिर अपना कारोबार शुरु करने के लिए नहीं, बल्कि अपने पशुओं का चारा ख़रीदने के लिए लेने आई थी. सूखे के कारण चारा तो दूर पीने का पानी भी नहीं था. महिला ने अपना गुस्सा तो निकाल लिया लेकिन चेतना ने विषय की गंभीरता को समझा. इस घटना के बाद चेतना ने पशुओं का कैंप स्थापित करने का निर्णय लिया जहां पशुओं के पानी की व्यवस्था होगी. लेकिन सवाल ये था कि चारा और पानी कहां से आयेगा? इस समस्या का समाधान गांववालों ने मिलकर किया. कैंप स्थापित हो गया और 1 महीने के अंदर हज़ारों ग्रामीण अपने पशुओं को लेकर कैंप में पहुंचे. देखते ही देखते ही कैंप उस क्षेत्र का सबसे बड़ा कैंप बन गया. लोगों ने मदद के लिए हाथ बढ़ाये और कारवां बनता गया.

Ted Talks में भी चेतना ने अपने कार्यों के बारे में बात की-

चेतना, आप हम जैसे लोगों के लिए प्रेरणा हैं. हम सामाजिक समस्याओं से विचलित तो हो जाते हैं लेकिन हमें ये समझ नहीं पाते कि आख़िर इनके खिलाफ़ मुहीम कैसे छेड़े. शुक्रिया, हमें ये याद दिलाने के लिए कि तबियत से अगर एक पत्थर उछाला जाए, तो आसमान में भी सुराख हो सकता है.

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