14 किलोमीटर जर्जर खदानों के अंदर जाकर कोयला निकालने वाले ये मजदूर हैं देश की जान

Bikram Singh

ये जो चौड़ी सड़कें, ऊंची-ऊंची बिल्डिंगें, ओवर ब्रिज, सुपर फास्ट ट्रेनें और स्मार्ट सिटीज़ देख रहे हैं, इसे हम विकास भी कहते है. हमारे शब्दों में यह बदलता हिन्दुस्तान है. लेकिन क्या आप जानते है कि इस बदलते हिन्दुस्तान के पीछे किसका योगदान है? मेहनतकश मजदूरों का! ऐसा मज़दूर, जो ग़रीब और बेबस है और अपने अस्तित्व को बचाने की फिराक में है. वो रोज़ मरता है, फ़िर भी ज़िंदा रहता है. वैसे मज़दूरों के कई स्वरूप होते हैं, लेकिन हम आपको एक ऐसे मजदूर वर्ग से मिलाने जा रहे हैं, जिनके काम के बारे में जान कर आप इनको सलाम करेंगे!

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कोयला ऊर्जा का सबसे बड़ा साधन है. बिना इसके किसी भी देश में विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती है. घर के चूल्हे हो या फ़िर बड़ी-बड़ी फैक्टिरियां, बिना कोयले के सबकुछ अधूरा है. क्या कभी आपने सोचा है कि कोयला निकलता कैसे है? इसे निकालने वाले मजदूरों की ज़िंदगी कैसी होती है? अगर नहीं सोचा है तो जरूर सोचिए, क्योंकि इसके पीछे कई ज़िंदगियों का योगदान है. इन्हें ये नहीं पता होता है कि खदान में जाने के बाद सुबह का सवेरा देख पाएंगे या नहीं!

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सर पर सेफ्टी टोपी (जो नाम मात्र की है), पैरों में बूट (सिर्फ़ वज़नदार है), कमर में लाइट से टंगी साइकिल टायर का बेल्ट. कुछ इसी वेश-भूषा में कोयला मजदूर पाए जाते हैं. हो सकता है कि ये सभी चीज़ें इनकी सुरक्षा के लिए बनी हो, लेकिन खदान की जर्जर स्थिति से बचने के लिए ये नाकाफी हैं.

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पूरे हिन्दुस्तान में धनबाद एक ऐसी जगह है, जहां कोयले का उत्पादन अन्य जगहों के मुकाबले ज्यादा होता है. इसी वजह से इस जगह को देश की ‘कोयला राजधानी’ भी कहते हैं. आमतौर पर इस क्षेत्र को ‘कोयलांचल’ के नाम से भी जाना जाता है.

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आइए तस्वीरों में देखते हैं कोयला मजदूरों की ज़िंदगी की एक झलक.

1. कोयला मज़दूर अपनी पारंपरिक ड्रेस में खदान में जाने को तैयार है. अंदर से डर तो है, लेकिन मुस्कान ही इनकी पहचान है.

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2. यही है वो खदान, जहां ये मजदूर भूगर्भ से कोयला निकालते हैं.

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3. खदान के अंदर का रास्ता कुछ इसी तरह से है. एक खदान की औसत दूरी 10 से 14 किलोमीटर होती है.

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4. खदान के अंदर कोयले को मशीन या फावड़ा से काटा जाता है. बाद में इसे एक जगह इकठ्ठा कर लिया जाता है.

5. फ़िर ट्रॉली की मदद से खदान के ऊपर कोयले को निकाला जाता है.

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6. बाद में इस कोयले को खदान के बाहर खड़े ट्रक या रेल में भर देते हैं, ताकि फैक्ट्रियों में जा सके.

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7. कई मजदूरों को ख़तरनाक बीमारियों से जूझना पड़ता है. मोतियाबिंद और सांस की समस्या होना यहां आम बात है.

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खाना बनाने से लेकर फैक्ट्रियों में लोहे को गलाने तक, कोयले का इस्तेमाल किया जाता है. विशेष तौर पर कोयला धनबाद की जान है, क्योंकि यहां पर रोटी, कपड़ा और मकान कोयले पर ही निर्भर करता है. लेकिन इन कोयला निकालने वालों की जान की कोई कीमत नहीं होती है.

खदानों की जर्रज स्थिति होने के बावजूद भी इन्हें कोयला निकालने के लिए मजबूर किया जाता है. जिस वजह से इनके साथ कई हादसे होते रहते हैं.

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कई बार खदानों में पानी भी घूस जाता है. इस कारण इनकी मौत भी हो जाती है.खदान में लगने वाले लोहे को बेच कर, उसकी जगह लकड़ी के पाए लगाए जाते हैं. इस वजह से खदान काफ़ी कमजोर हो जाती है, और धंसने की संभावना बनी रहती है.

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झरिया, धनबाद और इसके आस-पास के इलाकों में खदान के अंदर आग लगी हुई है. दुख की बात ये है कि इसे बुझाने की कोशिश भी नहीं की जा रही है.

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कोयला और ‘कोयला माफिया’

कोयला जहां देश के लिए विकास का एक अहम स्रोत है, वही माफियाओं के लिए एक उपहार है. एक आंकड़े के अनुसार, कोयले पर सरकार से ज़्यादा माफियाओं की तूती बोलती है. स्थिति ये है कि अवैध रूप से सबसे ज्यादा कोयले का उत्पादन हो रहा है.

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देश के विकास और कई लोगों के लिए कोयला एक ज़िंदगी है. लेकिन इसके उत्पादन में कई ज़िंदगियां कुर्बान हो जाती हैं. एक हकीकत ये है कि अन्य लोगों के योगदान देखने को मिल जाते हैं, मगर इनका कहीं कोई नाम नहीं है, क्योंकि ये एक कोयला मज़दूर हैं.

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