कटक के इस चाय वाले की पूरे देश में हो रही है चर्चा, उठा रहा है ग़रीब बच्चों की शिक्षा का ख़र्च

J P Gupta

स्कूल में कई मुहावरे पढ़ाए जाते थे. इनमें से कुछ का मतलब समझ आता, तो कुछ सिर के ऊपर से निकल जाते थे. ऐसा ही मुहावरा था, ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’. इसका मतलब किसी को एक अच्छे से उदाहरण से ही समझाया जा सकता है. आज हम आपको ऐसी ही एक शख़्सियत से मिलवाने जा रहे हैं, जिन्होंने असल ज़िंदगी में इस मुहावरे को सार्थक कर दिखाया.

हम बात कर रहे हैं कटक में रहने वाले 60 साल के डी. प्रकाश राव की. वो एक चाय की दुकान चलाते हैं. जब वो 6 साल के थे, तब उनके पिता ने ये कहकर पढ़ाई छुड़वा दी थी कि, पढ़ाई में सिर्फ़ पैसा बर्बाद होता है, इससे कुछ हासिल नहीं होता.

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तब से लेकर अाज तक राव चाय बेचने का काम कर रहे हैं. मगर उनके मन को हमेशा एक बात कचोटती रहती थी कि वो कभी पढ़ नहीं पाए. राव ये बात भलि-भांति समझ गए थे कि एक अच्छा और ख़ुशहाल जीवन बिताने के लिए पढ़ाई ज़रूरी है. इसलिए मन में ठान लिया कि वो ग़रीब बच्चों की पढ़ाई का प्रबंध करेंगे.

काम मुश्किल था, मगर इरादे मज़बूत थे. इसलिए वो इसमें सफल भी हुए. राव पिछले 17 वर्षों से कटक के स्लम एरिया के बच्चों की पढ़ाई का ख़र्च उठा रहे हैं. उन्होंने यहां एक छोटा सा स्कूल खोला है, जिसमें 4 टीचर्स हैं. बच्चों की पढ़ाई और शिक्षकों के वेतन की सारी ज़िम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर है.

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ये काम इतना आसान भी न था. उनका कहना है कि पहले इन बच्चों के माता-पिता इन्हें पढ़ने के लिए उनके स्कूल में नहीं भेजते थे. बच्चे भी खेल-कूद में लगे रहते. मगर जब राव ने बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ खाना देना शुरू किया, तब बच्चे स्कूल आने लगे. एक ग़रीब परिवार के बच्चों की सबसे बड़ी ज़रूरत खाना ही होता है. वो यहां पूरी होने लगी और शिक्षा का रास्ता भी खुल गया.

राव ने इन बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा देने के बाद इनका दाखिला पास के ही सरकारी स्कूल में करवाया, ताकि उनकी पढ़ाई जारी रहे. हाल ही में हुए ‘मन की बात’ कार्यक्रम में पीएम मोदी ने इनका ज़िक्र किया था. तब से लोग इन्हें जानने लगे हैं.

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ANI से बात करते हुए राव ने कहा- ‘मैं नहीं चाहता था कि पैसे की तंगी की वजह से इन बच्चों की पढ़ाई छूटे. इसलिए मैंने अपने टी-स्टॉल और स्कूल के बीच समय को बांट लिया है. आज मेरे स्कूल में 70-75 बच्चे पढ़ते हैं. चाय की दुकान से सीज़न में मैं 700-800 रुपये कमा लेता हूं और ऑफ़-सीज़न में 600 रुपये. पैसे की चिंता नहीं है, मैं बस भविष्य में इन बच्चों को कुछ बनते हुए देखना चाहता हूं.’

जिस शिद्दत से राव इस काम में जुटे हुए हैं, उसे देखते हुए तो यही लगता है कि उनका ये सपना ज़रूर साकार होगा.

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