बेटे को महंगे स्कूल के गेट पर छोड़ते वक़्त ख़ुद को अमीरी और अंग्रेज़ी के आगे टूटने से बचाता है ये ऑटो चालक

Pratyush

बचपन में हम में से कई लोगों को स्कूल जाना पसंद नहीं था. इसका मुख्य कारण टीचर का डर होता था. बच्चों के लिए ये डर लाज़मी है, लेकिन असली परेशानी तो तब है, जब इन बच्चों के मां-बाप स्कूल और टीचर से घबराने लगें. इन मां-बाप के घबराने की वजह टीचर की मार नहीं होती, लेकिन वो झेप होती है जिसका वो सामना करने से डरते हैं. एक गरीब व्यक्ति जिसने कभी स्कूल नहीं देखा, वो एक अंग्रेज़ी बोलने वाली टीचर के सामने कैसा महसूस करेगा. जो अपने बच्चे को ये समझा नहीं पाएगा कि सामने वाला बच्चा महंगी कार से क्यों आता है और वो आॅटो या साइकल पर क्यों.

इरफ़ान खान की फ़िल्म ‘हिन्दी मीडियम’ में भी मां-बाप की इसी परेशानी को दर्शाया गया है. वो फ़िल्म है, वो किसी कहानी से प्रेरित हो न हो, पर दिल्ली के एक आॅटो ड्राइवर के लिए ​किसी महंगे अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल में जाना कैसा होता होगा? जो व्यक्ति कभी पढ़ा नहीं, वो अपने बेटे का एडमिशन ऐसे स्कूल में कराने के बाद क्या सोचता होगा.

Scoopwhoop के पत्रकार Premankur Biswas ने दिल्ली के आॅटो चालक विजय सिंह की यही कहानी जानने की कोशिश की.

विजय जिसने कुछ हफ़्ते पहले अपने बेटे का एडमिशन साउथ दिल्ली के एक महंगे स्कूल ​में कराया है. RTE Act 2014 के अंतरगत समाज के ​आर्थिक रूप से कमज़ोर लोग, जिनकी सालाना आय 1 लाख से कम है, उनके लिए प्राइवेट स्कूल में 25 प्रतिशत सीट रिज़र्व होती हैं.

विजय पिछले कुछ सालों से प्राइवेट स्कूल के फ़ॉर्म भर रहा था. कभी स्कूल की शक्ल न देखने वाला विजय अपने बच्चे को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाना चाहता था. इस पिता में जहां एक तरफ़ खुशी है, वहीं दूसरी ओर डर भी कि कहीं इसके इस इंटरव्यू का कोई बुरा असर उसके बेटे के एडमिशन पर न पड़े.

लगभग तीन हफ़्ते के डर और हिचकिचाहट के बाद विजय, Premankur से मिलने को तैयार हुआ. दक्षिण दिल्ली के घिटोरिनी में 10X10 का कमरा, जिसमें एक तरफ़ अलमारी और दूसरी तरफ़ किचन के स्लैब ने पूरी जगह घेर रखी है. दीवारों पर चिपकी ड्रॉ​इंग्स में चार वर्षीय अनुज और सात वर्षीय रवि का बचपन​ दिख रहा था.

Premankur के सामने अनुज आइसक्रीम खा रहा था. स्कूल के बारे में पूछे जाने पर वो तुरंत बोल पड़ा, ‘मेरे स्कूल में लिफ़्ट है’ और फिर अपनी मां को देखा. अनुज की मां उर्वशी ने कहा कि, ‘अभी इन सभी बातों को समझने के लिए वो काफ़ी छोटा है. ये अभी चार साल का है. अभी तो हम भी इस सब में उलझे हैं.

पहले मज़ाक सा लग रहा था

विजय ने बताया कि वो दो तीन साल से ये फ़ॉर्म भर रहे थे. वो उसके बड़े बेटे को भी इंग्लिश मीडियम स्कूल में डालना चाह रहा था. लेकिन तब उसका नाम लकी ड्रॉ में नहीं आया. विजय का बेटा रवि पास के ही सर्वोदय स्कूल में पढ़ता है. रवि हिन्दी मीडियम स्कूल में है, उसे मुफ़्त में एक अंग्रेज़ी टीचर ट्यूशन पढ़ाते हैं. जब कुछ महीने पहले विजय के पास स्कूल से चिट्ठी आई तो उसे विश्वास नहीं हुआ. उसने रवि के टीचर को जब ये दिखाया, तब उसे विश्वास हुआ.

मां-बाप से सामने खड़ी चुनौतियां

बेटे का लकी ड्रॉ में नाम सुन कर विजय काफ़ी खुश था, लेकिन उसी के साथ उसे अनुज की फ़ीस की चिंता सता रही थी. उसे लग रहा था कि इन स्कूलों की सालाना फ़ीस लाखों में होती है. विजय की टेंशन को थोड़ा सरकारी डिस्काउंट मिल गया. अनुज की ट्यूशन फ़ीस पूरी तरह माफ़ थी. उसे उसकी किताबों और पांच तरह की स्कूल ड्रेस का खर्च उठाना था. विजय ने इन सबके लिए लोन ले लिया. अब विजय और उसकी पत्नी के सामने सिर्फ़ एक परेशानी है, उसकी अंग्रेज़ी बोलने वाली टीचरों को सामना करना. ​विजय जो कभी स्कूल नहीं गया और उर्वशी, जिसने पांचवीं के बाद स्कूल की शक्ल नहीं देखी वो Parents Teacher Meeting में बाकी मां-बाप के सामने ​टीचर से बात कैसे करेंगे. जब विजय का बेटा उससे पूछता है कि बाकी बच्चे AC बस में जाते हैं, पर वो क्यों नहीं, तो वो बस ये कह कर टाल देता है कि ‘वो बेकार बस हैं, हमारे पास खुद का आॅटो है.

फ़िल्म ‘हिन्दी मीडियम’ में भले आप तीन घंटे वो ज़िन्दगी जी लें, लेकिन विजय जैसे लोग हर रोज़ अंग्रेज़ी बोलने वाली दुनिया में खुद को टूटने से बचाते रहते हैं.

पहचान छिपाने के लिए इस लेख में कुछ नाम बदले गए हैं.

All pictures and videos sourced from Premankur Biswas

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