कहते हैं मुकद्दर उनके भी होते हैं जिनके हाथ ही नहीं होते. सिर्फ़ हाथ नहीं, जिनके पैर नहीं होते वो भी अपने पैरो पर खड़े हो सकते हैं. जिनकी आंखें नहीं होतीं वो भी सपने देख सकते हैं. नहीं, ये फ़िलॉसफ़ी नहीं हकीक़त है. कई ऐसे देश हैं जहां दिव्यांग लोग एकदम आम जीवन जीते हैं. वो अकेले रहते हैं, अकेले सफ़र करते हैं, खेलते हैं और ऑफ़िस भी जाते हैं.
क्या हम ऐसे भारत की कल्पना नहीं कर सकते जहां, एक दिव्यांग बिना अपने परिवार वालों पर निर्भर रहे अपनी मर्ज़ी के काम कर सके? जी हां, इसके लिए बस कुछ नीति-नियम और उन्हें अनुशासन के साथ अमल में लाने की ज़रूरत है. आत्मनिर्भर बनने के लिए पहले तो ज़रूरी है कि ये अपनी मर्जी से कहीं भी आ-जा सकें. हमारे देश में परिवहन के लिए दिव्यांगों को कई सुविधाएं दी गई हैं. ज़रूरत है इन सुविधाओं के बारे में जागरूक रहने की. इन सुविधाओं को उन तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ सरकार और दिव्यांगों के परिवावालों की नहीं, बल्कि हर उस इंसान की है, जो उसके आसपास है.
रेलवे स्टेशन
सभी मुख्य रेलवे स्टेशनों पर दिव्यांगों और वरिष्ठ नागरिकों के लिए व्हीलचेयर उपलब्ध कराने का प्रवधान है. बड़े स्टेशनों पर एलेवेटर या एस्केलेटर भी होते है. Senior Citizens और दिव्यांगों के प्लेटफ़ॉर्म पर आसानी से चलने के लिए इन स्टेशनों पर Battery Operated Vehicle की सुविधा दी गई है. दिव्यांगों के लिए अलग टिकट खिड़की की भी व्यवस्था होती है. इसके अलावा ट्रेन में दिव्यांगों के लिए सीटें भी आरक्षित होती हैं. ट्रेन चलने के बाद भी यदि कोई लोअर बर्थ खाली है, तो कोई ज़रूरतमंद टीटीई से बात कर के अपनी सीट बदलवा सकता है. लगभग सभी मेल और एक्प्रेस ट्रेनों में ट्रेन की शुरुआत में और अंत में विकलांगों के लिए एक डब्बा आरक्षित होता है.
फिर भी परिस्थितियां ऐसी हैं कि कोई भी दिव्यांग ट्रेन से अकेले यात्रा करने की आसानी से हिम्मत नहीं कर पाता है. कई स्टेशनों पर व्हीलचेयर आसानी से नहीं मिल पाती हैं, कभी-कभी व्हीलचेयर मिल जाती हैं, तो इन्हें Escort करने के लिए कोई नहीं होता. कहीं-कहीं प्रवेश के लिए रैम्प नहीं होते हैं, तो कहीं वो इस हाल में होते हैं कि दिव्यांगों को उस पर खुद को अकेले संभालना मुश्किल होता है.
दुर्भाग्य से हमारे देश में नेत्रहीनों के लिए अकेले ट्रेन से ट्रैवल करना अब भी नामुमकिन जैसा है. हालांकि, 2015 में मैसूर रेलवे स्टेशन को Blind-Friendly बनाया गया था. यहां उनके लिए प्लेटफ़ॉर्म पर चलने के लिए Tactile Path बनाए गए हैं. यहां ब्रेल और टेक्टाईल से पूरे स्टेशन का नक्शा बनाया गया है, जिसकी मदद से कोई भी नेत्रहीन पूरे स्टेशन पर कहीं भी आसानी से जा सकता है. इतना ही नहीं, यहां स्टेशन पर कैन्टीन और फ़ूड प्लाज़ा में ब्रेल मेन्यू भी मौजूद हैं.
बस
बस में सफ़र करना भी दिव्यांगों के लिए उतना ही मुश्किल है. ज़्यादातर स्टेट बस में दिव्यांगो के यात्रा करने के लिए फ़ीस में तो कंसेशन है, मगर उनके चढ़ने उतरने के लिए रैम्प की कोई सुविधा नहीं है. न ही उनकी मदद के लिए कोई अटेंडेंट ही मिलते हैं. लो-फ़्लोर बसों की व्यवस्था भी बस महानगरों में ही है. मगर यहां भी लो-फ़्लोर से उतरने के बाद बस स्टॉप का फ़्लोर और उससे उतरना कितना सुविधाजनक है? स्टेट बसों में ऑडियो अनाउंसमेंट की सुविधा नहीं है. अब ऐसे में आप कल्पना कर सकते हैं कि बस में यात्रा करने में एक नेत्रहीन यात्री कितना सुरक्षित महसूस करेगा!
एयरपोर्ट
एयरपोर्ट पर दिव्यांगो का ख्याल रखा गया है. वैसे तो हर एयरलाइंस कंपनी अपने साथ यात्रा कर रहे दिव्यांग पैसेन्जर की सुविधाओं का ध्यान रखती है, फिर भी एयरपोर्ट अथॉरिटीज़ की ज़िम्मेदारी है कि पैसेन्जर को चेकइन से लेकर प्लेन बोर्ड कर लेने तक और उतरने से लेकर बाहर निकलने तक कोई दिक्कत न हो. दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल (IGI) एयरपोर्ट का उदाहरण लें, तो यहां दिव्यांग पैसेन्जर के लिए व्हीलचेयर और उसके साथ एक अटेंडेंट हमेशा मिल जाएगा. यहां Washrooms को भी Renovate कर के Disabled Friendly बनाया गया है.
मेट्रो
दिव्यांगो को सफर करने में कोई दिक्कत न हो इसके लिए मेट्रो भी कुछ कामयाब दिखती है. लगभग हर मेट्रो स्टेशन पर एस्कलेटर/एलेवेटर मौजूद होते हैं. व्हीलचेयर की व्यवस्था भी हर मेट्रो स्टेशनों पर मिल जाती है. व्हीलचेयर के लिए Extra Wide फ़्लैप गेट्स भी लगाए गए हैं. हर स्टेशन पर टेक्टाइल पाथ मौजूद हैं और ट्रेनों में भी ऑडियो-विज़ुअल अनाउन्समेंट की सुविधा है. दिव्यांगों के लिए हर कोच में सीटें भी आरक्षित हैं. इसके अलावा दिव्यांगों की मदद के लिए वॉलंटियर्स मौजूद हैं. दिल्ली मेट्रो में ये वॉलंटियर्स, DMRC की हेल्पलाईन न. 155370 पर कॉल करने से आपको मिल जाएंगे.
दिव्यागों की राह आसान करने के लिए शुरू की गई ‘सुगम्य भारत योजना’ का एक लक्ष्य परिवहन को सुगम्य बनाना भी है.
सरकारी सुविधाओं में खामियों के अलावा आम लोगों की संवेदनहीनता भी उनकी मुश्किलें बढ़ाती हैं. कुछ दिव्यांगों की शिकायत है कि लोग बसों में उनसे दुर्व्यवहार करते हैं. जहां पर लोगों को उनके लिए सीट खाली कर देनी चाहिए, वहां उल्टा उन्हें धक्के ही खाने को मिलते हैं.
सरकारी सुविधाओं की कमी के कारण भी दिव्यांगों को अपने घरों में कैद रहने पर मजबूर होना पड़ता है. इनके अधिकार तो हैं, पर उन्हें अमल में लाने भर को संवेदनशीलता नहीं. भारत में दिव्यांगों का सामान्य ज़िंदगी जीना एक सपने जैसा है. यदि कोई दिव्यांग व्यक्ति किसी सामान्य काम को करे तो हम इन पर ‘हौसला’, ‘उदाहरण’ जैसे शब्द थोप देते हैं. एक तरफ़ इनसे हम ‘प्रेरणा’ लेते हैं, दूसरी तरफ इनको ‘दया की नज़रों’ से देखते हैं. इन्हें हम ‘ऐसे लोगों’ में Catagorize कर देते हैं. जबकि ये सामान्य लोग जैसे ही हैं और याद रहे सामान्य लोग भी कभी भी ‘ऐसे लोगों’ में आ सकते हैं.