नील आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बहुत बड़ी अहमियत रखता है. इस विद्रोह में एकजुट हुए किसानों के सामने अंग्रेज़ी हुक़ूमत को झुकना पड़ा था. लेकिन अधिकतर लोगों को नील विद्रोह से जुड़े चंपारण में गांधी जी द्वारा किए गए आंदोलन के बारे में ही पता है. जबकि इसकी शुरुआत उससे कई बरस पहले बंगाल में हो चुकी थी.
चलिए आज आपको नील आंदोलन से जुड़े उस दिलचस्प इतिहास के बारे में भी बता देते हैं, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है.
नील मतलब मुनाफ़ा ही मुनाफ़ा
बात उन दिनों की है जब नील मुनाफ़े का बिज़नेस हुआ करता था. इसका अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 1788 तक ब्रिटेन द्वारा आयातित नील में भारतीय नील का हिस्सा 30 फ़ीसदी था, वो 1810 तक 95 फ़ीसदी तक हो गया था.
दरअसल, यूरोप में भारतीय नील की डिमांड तेज़ी से बढ़ गई थी. ब्रिटेन में भी नील का प्रयोग छपाई आदि के लिए किया जाने लगा था. ख़ासकर बंगाल में पैदा होने वाले नील की बहुत डिमांड थी. इसलिए अंग्रेज़ों ने भारत में किसानों को नील की खेती करने के लिए मजबूर किया. आलम ये था कि कुछ ब्रिटिश अधिकारी अपनी नौकरियां छोड़कर नील का व्यव्साय करना शुरू कर दिया था.
यहीं से शुरू हुआ अंग्रेज़ों द्वारा भारतीय किसानों पर किये गए ज़ुल्मो की दास्तान. उन्होंने ज़मींदारों को अपनी ज़मीन के कुछ हिस्से पर मज़दूर लगाकर नील की खेती करने को मजबूर किया. एक और तरीका था. ज़मींदार सस्ते कर्ज का लालच देकर नील की खेती करने का काम करवाया. कर्ज़ के बदले में किसान को अपनी 25 फ़ीसदी ज़मीन पर नील की खेती करनी होती थी.
ज़मींदार बीज वगैरह का इंतज़ाम करते थे, लेकिन बुआई, फसल की देखभाल और उसकी कटाई का काम किसान को ही करना होता था. एक बार जो किसान इस कुचक्र में फंस जाता वो आसानी से निकल नहीं पाता था. क्योंकि साल दर साल किसान को नील की खेती करने को मजबूर किया जाता.
सबसे बड़ी दिक्कत वाली बात ये थी कि नील की फसल धान की फसल के समय ही होती थी. इसने किसानों को दाने-दाने का मोहताज बना दिया. इसके अलावा नील की खेती करने के बाद खेत दूसरी फसल उगाने के लायक भी नहीं रह जाते थे.
हालात ऐसे हो गए कि किसानों को मारपीट कर उनसे नील की खेती कराई जाने लगी. कर्जे़ के बोझ तले दबे होने के कारण उन्हें न चाहते हुए भी ऐसा करना पड़ता. इससे परेशान होकर किसानों ने एक सुर में नील की खेती करने का बहिष्कार करना शुरु कर दिया.
ऐसे शुरू हुआ नील विद्रोह
नील विद्रोह की पहली घटना 1859 में बंगाल के नादिया ज़िले के गोविंदपुर गांव में हुई. वहां के स्थानीय किसान नेता दिगम्बर विश्वास के नेतृत्व में किसानों ने नील की खेती करने से मना कर दिया. 1860 तक ये आंदोलन पूरे बंगाल में फैल गया. ज़मींदारों ने भी दबे मुंह नील विद्रोह का समर्थन किया था.
ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा
ब्रिटिश सरकार पहले ही 1857 के विद्रोह के चलते सतर्क थी और वो दोबारा किसी आंदोलन को पनपने नहीं देना चाहती थी. इसलिए अंग्रेज़ों ने एक आयोग बनाकर नील की खेती से जुड़ी कुछ घोषणाएं करवाईं. इसके अनुसार, किसी भी किसान या रैय्यतों को ज़बरदस्ती नील की खेती न करवाने की बात कही गई थी. साथ ही नील की खेती से जुड़े सभी विवादों का निपटारा क़ानूनी तरीके से किए जाने की बात कही गई.
इस तरह 1860 में बंगाल में सभी नील के कारखाने बंद हो गए. किसानों की एकजुटता के सामने अंग्रेज़ों को झुकना पड़ा और उन्होंने नील की खेती के लिए बिहार को अपना अगला टार्गेट चुन लिया. बिहार के किसानों को भी ऐसी ही परेशानियों का सामना करना पड़ा. एक किसान के कहने पर महात्मा गांधी ने उनकी समस्याओं का संज्ञान लिया. इस तरह 1917 में गांधी जी ने चंपारण आंदोलन की शुरुआत की.
नील विद्रोह से जुड़ी ये बातें जानते थे आप?
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