खाने में क्या बनाऊं?
अरे! इस कपड़े को यहीं पड़ा रहने दो!
आज नहीं कल साफ़ कर लूंगी!
ये सारे सवाल और ख़्याल मुझे हमेशा घेरे रहते हैं.
सच बोलूं तो मुझे अपना ध्यान रखने में बड़ी मेहनत लगती है. मैं 21 साल की हूं, अभी पिछले साल ही अपना शहर कानपुर छोड़ दिल्ली जैसे महानगर में जॉब करने के लिए आई हूं.
मेरे रूम में मेरे कपड़े फैले रहते हैं. मैं रात को ऑफ़िस से घर जाती हूं तो कई बार आसान सा खाना बनाती हूं और खाकर सो जाती हूं. कई बार मैं अपना काम अगले दिन पर टाल देती हूं. एक दिन छोड़ कर नहाना, ऑफ़िस के समय से हमेशा एक घंटे पहले उठना ये जानते हुए भी कि खाना-वाना सब बनाना है. कभी मैं ज़रूरत से ज़्यादा पानी पी लेती हूं तो ज़्यादा खा लेती हूं. पता होता है कि सोना है कल ऑफ़िस है या थकान हो रही है मगर नहीं. अपने मन की बात नहीं सुनती, दूसरों के हां में हां मिला देती हूं, भले ही मुझे ‘ना’ बोलना हो.
मेरी इन हरक़तों की वजह से मेरी फ़्लैटमेट परेशान रहती है. वो मेरे को बोलती रहती है कि ईशी ऐसे नहीं वैसे करना चाहिए, अपना ध्यान तो रख ले अच्छे से…
सिर्फ़ यही नहीं मेरी मम्मी भी मुझे बोलती रहती है.
मुश्किल है…
मगर नहीं हो पाता है. मेरी हमेशा ख़ुद से लड़ाई चल रही होती है. क्या मुझे करना चाहिए और क्या नहीं.
मुझे एहसास है इस बात का कि मैं चीज़ों को लेकर लापरवाह हूं. ख़ुद को लेकर हूं.
पर फिर मैं ये भी सोचती हूं, कि ठीक है सब नहीं हो पा रहा है तो क्या हुआ? अभी नहीं तो आने वाले समय में मैं सीख ही जाउंगी ख़ुद को संभालना. आख़िर, इंसान समय के साथ ही तो सब सीखता है. और ये मेरा सफ़र है मुझे इसके बेपरवाह भरे दिन भी प्यारे हैं और आगे आने वाले भी.