इस शहर में आए मुझे 1 साल से ज़्यादा हो चुका है, लेकिन आज भी एक खालीपन सा महसूस होता है

Ishi Kanodiya

आज भी कभी-कभी ऑफ़िस से घर जाते वक़्त, वो पहले दिन जैसा अहसास होता है. जब पहली बार घर से दूर इस शहर में अकेली रूम का दरवाज़ा खोलने पर, पहचाने हुए चेहरों की जगह सन्नाटे को पाया तो उस समय तो लगता था कि ये नई बात है. नया शहर, नए लोग और नया रहन-सहन. सोचती थी समय के साथ के ये खालीपन भी चला जाएगा. 

मगर, मैं ग़लत थी. समय के साथ मेरा अकेलापन नहीं गया. ये बदस्तूर आज भी है. यहां तक कि कभी-कभी तो ऑफ़िस से वापस आने का भी मन नहीं करता. ऑफ़िस में बैठे-बैठे अक्सर ये सोचती हूं कि क्या करूंगी उस ख़ाली पड़े कमरे में जाकर? 

इस शहर में मुझे आए 1 साल से भी ज़्यादा हो गया है. मगर आज भी एक मेरे साथ अजीब सा खालीपन है. 

ये अकेलापन सिर्फ़ घर-परिवार से दूर रहने का ही नही है, बल्कि लोगों से न मिल पाने की वज़ह से भी है. दिल्ली जैसे बड़े शहर में लोगों से मिलने में भी एफ़र्ट लगता है क्योंकि सच तो ये किसी के पास इतना समय ही नहीं है. 2 घंटे मिलने के लिए हमें कम से कम एक हफ़्ते पहले से ही प्लानिंग करनी पड़ती है. तब जाकर कहीं महीने में एक-दो बार मिल पाते हैं. 

अगर आपने कभी ध्यान दिया हो तो आपको एहसास होगा कि महानगरों में दसियों मंज़िल की इमारतें तो हैं, लेकिन हमें ये मालूम ही नहीं होता कि हमारे पड़ोस में कौन रहता है? आपको कभी-कभी लिफ़्ट से ऊपर-नीचे आते जाते समय कोई दिख गया, दो-चार बातें हो गईं, बस यहीं तक ही हमारी बातचीत होकर रह जाती है. जबकि छोटे शहरों में हमारे आस-पास लोगों की कमी नहीं होती है. हमारे घरों में हर वक़्त कोई न कोई आता-जाता रहता है फ़िर चाहे वो पड़ोसी हों या भाई-बहनों के दोस्त.

इस बात में कोई दो राय नहीं कि इतने बड़े शहर में अकेले रहने के साथ-साथ, ढेर सारी आज़ादी भी लेकर लाता है. मैं अपना हर काम अपने हिसाब से कर सकती हूं. कोई रोक-टोक नहीं और वास्तव में मुझे अच्छा भी लगता है. मगर कभी-कभी आप अपने रोज़मर्रा के काम करते हुए किसी से बात भी करने का मन करता है. शाम की चाय बांट कर पीना का मन भी करता है. अफ़सोस कि मेरी ये कल्पनाएं कहीं खो सी जाती हैं और मैं अकेलेपन में खो सी जाती हूं. 

ये अकेलापन शायद इसलिए भी लगता है क्योंकि बचपन से मैं अपनों के साथ रही हूं, जहां चौबीसों घंटे हमारे आस-पास लोग होते थे. ऐसे में अकेले रहना थोड़ा मुश्किल सा हो जाता है. घर पर मेरी हर बात सुनने के लिए कोई न कोई मौजूद होता था, मगर यहां बात करने के लिए हफ़्ते भर का इंतज़ार करना पड़ता है. ये ज़िंदगी का एक नया पड़ाव है, जिसके साथ जीना शायद मुझे धीरे-धीरे सीखना होगा. 

मगर इस शहर में आकर नौकरी करना ये सब मैंने ख़ुद चुना था. धीरे-धीरे मैं अपने इस अकेलेपन के बीच सामंजस्य बनाने की कोशिश कर रही हूं. मुझे यहां अभी तो इस शहर में बस 1 साल ही हुआ है. 

Awesome Illustrations by Aprajita Mishra

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