बुराइयों से दूर रह कर अच्छाइयों को अपनाना ही रमज़ान की तालीम है. ये पाक महीना रोज़ेदार को अल्लाह के नज़दीक ले जाता है. दुनियाभर में लोग रमज़ान के पाक महीने में रोज़ा रखते है, इबादत करते हैं. लेकिन रोज़ा रखना कोई आसान काम नहीं है. जिसमें इच्छाशक्ति और आस्था है, वही इसे जी सकता है. ये मात्र रस्म या धर्म तक ही नहीं बल्कि अपने आंतरिक पुरसुकून की तलाश का एक ज़रिया है. रोज़े में आप पानी या जूस का एक घूंट भी नहीं पी सकते, खाना तो दूर की बात है. हालांकि रोज़ा रखना सभी के लिए ज़रूरी नहीं है. एक श्रेणी के तहत बीमार, बुजुर्ग, बच्चों, गर्भवती और मासिक धर्म की स्थिति से गुज़र रही महिलाओं को इससे छूट है.
रोज़े के दौरान इफ़्तार (जब रोज़ा तोड़कर कुछ खाते हैं) के बाद से सेहरी (जो अलसुबह करते हैं) तक खाना खाया जा सकता है. रोज़े के दौरान इफ़्तार का सबसे ज़्यादा महत्व माना जाता है, लोगों की आस्था है कि इफ़्तार के दौरान की जाने वाली दुआ कुबूल होती है. साथ ही इफ़्तार के वक़्त सभी साथ मिलकर रोज़ा खोलते हैं, जिससे भाईचारा बढ़ता है. कई बार इफ़्तार कराने वाले हिंदू भी होते हैं.
बीते दिनों जब मैं अपने दोस्त के साथ पुरानी दिल्ली गया, तो जामा मस्ज़िद के करीब दुकानें जगमगा रही थीं. गोश्त से लेकर सेवईयों की दुकानों पर लोगों की भीड़ थी. कहीं खज़ूर के ठेले लगे थे, तो कहीं कबाब और तंदुरी मुर्गो के भुनने की खुशबू मुझे अपनी ओर खींच रही थी. खैर, मैं रमज़ान के इस पाक महीने में पहली बार जामा मस्जिद गया था, वो भी शाम के वक़्त. मस्ज़िद में बैठी हज़ारों की भीड़ इफ़्तार की अज़ान का इंतज़ार कर रही थी. उस भीड़ में बच्चे, बजुर्ग और युवा मौजूद थे. उनके बीच में हम दोनों हाथ में कैमरा लिए कुछ अंजान चेहरों को ताक रहे थे. कुछ अल्लाह की दुआ में मशगूल थे, तो कुछ इफ़्तार के लिए फलों और खाने की दूसरी चीज़ों को प्लेटों में सज़ा रहे थे. एकाएक एक ज़ोर की आवाज़ आती है, ठीक वैसी ही जैसी 26 जनवरी के दौरान जब इक्कीस तोपों की सलामी दी जाती है. उस आवाज़ को सुनते ही लोग दुआ में बैठ गए. कुछ समय बाद सभी इफ़्तार करने लगे.
इबादत करता एक शख़्स.
रोज़ा तोड़ते रोज़ेदार.
भीड़ में अपने परिवार को ढूंढते बच्चे.
दुकान पर सजी सेवईयां.
जामा मस्ज़िद के पास जगमगाती लाइट्स.
ठेले पर रखे खजूर.
All Photos: Ram Kishore