दीपक की कहानी कहती है कि कबड्डी का मैट हो या ज़िंदगी की जंग, एक जाट हमेशा जीता है और जीतता रहेगा

Sumit Gaur

‘मर्द सूरमा, बीर कमेरी, रागनियां का गाना, देश धर्म जित जान ते प्यारा, बालक हो या शाणा, देशा में देश रे भारत, भारत में हरियाणा’

हरियाणा रोडवेज़ की बस में बैठे हुए या हरियाणा में किसी चाय की दुकान के पास से गुज़रते हुए ये गाना आपको बड़े ही आराम से सुनाई दे जायेगा. इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि इस गाने में हरियाणा को दूसरे राज्यों से बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने की कोशिश की गई है, पर कहीं न कहीं ये बात सच भी है कि अन्य राज्यों की तुलना में एक हरियाणवी का शरीर ज़्यादा हृष्ट-पुष्ट माना जाता है.

शायद यही वजह है कि अंतरार्ष्ट्रीय मंचों पर हिन्दुस्तान का नेतृत्व करने वाले ज़्यादातर पहलवान हरियाणा से ही दिखाई देते हैं. साक्षी मलिक, योगेश्वर दत्त, सुशील कुमार और बबीता कुमारी इसका जीता जागता उदाहरण हैं. इसी लिस्ट में एक नया नाम दीपक हुड्डा का भी है. दीपक मूल रूप से हरियाणा के रोहतक ज़िले के रहने वाले हैं और प्रो कबड्डी लीग के बाद सुर्ख़ियों में छाये. मैट पर बड़े-बड़े पहलवानों को पटकने के साथ ही अंक अर्जित करने वाले दीपक मैच के दौरान बेशक आक्रामक दिखाई पड़ते हैं. इसी का असर है कि लगातार दो साल तेलुगु टाइटन्स के साथ जुड़े रहने के बाद पुणेरी पल्टन्स ने सबसे बड़ी बोली लगाकर उन्हें ख़रीदा, जिस पर दीपक खरे भी उतरते हुए दिखाई दिए.

आज दीपक जिस मुकाम पर हैं, वहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने कुछ कम मेहनत नहीं की. दीपक जब 4 साल के थे तभी उनकी मां का हाथ उनके सिर से उठ गया था, जिसके बाद वो बचपन में ही अखाड़े से जुड़ गए और कब्बडी खेलने लगे. इस बारे में दीपक कहते हैं कि ‘मुझे इस खेल से कुछ ऐसा प्यार हो गया था कि मैं सारा दिन इसी की प्रैक्टिस करता रहता था. मेरे खेल को देख कर कोच भी काफ़ी प्रभावित हुए.’

2013 में दीपक को उस समय गहरा धक्का लगा, जब उनके पिता की मृत्यु हो गई. इस सदमे से उभरते हुए दीपक गांव में रहकर पार्ट टाइम टीचर बनने के साथ ही खेल की प्रैक्टिस करने लगे.

आखिर वो दिन भी आ गया जब उन्हें भारत की तरफ़ से साउथ एशियन गेम्स के लिए चुन लिया गया, जहां दीपक ने हिदुस्तान की झोली में गोल्ड ला कर टीम को जीत की कगार पर पहुंचाया. इसके बाद दीपक ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. 

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