जिस लंगर का खाना हम बड़े चाव से खाते हैं, उसकी शुरुआत कब और कहां से हुई?

Sumit Gaur

हर कॉलेज बंक में एक खासियत होती है कि मूवी, मॉल्स और मार्केट के अलावा दोस्तों के साथ गुरूद्वारे का चक्कर लग ही जाता है. कई इसकी वजह अपनी श्रद्धा को बताते हैं, तो कई गुरूद्वारे में मिलने वाले लंगर की वजह से श्रद्धा को अपना लेते हैं. अंजाने चेहरों के बीच गुरूद्वारे में मिलने वाली दाल का स्वाद कुछ ऐसा होता ही कि काके दा ढाबा और चड्ढा की रसोई भी फ़ेल हो जाये.

गुरूद्वारे में सिर झुकाने के बाद दीवारों पर लगी इनफार्मेशन स्लेट तो आप सब ने पढ़ी होगी, पर क्या कभी आपको ये जानकारी मिली कि लंगरों का चलन कैसे शुरू हुआ? आज हम आपको इसी लंगर के बारे में बताने जा रहे हैं.

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ऐतिहासिक कहानियों के अनुसार, एक बार सिखों के पहले गुरु नानक देव जी को उनके पिता ने व्यापार करने के लिए कुछ पैसे दिए, जिसे देकर उन्होंने कहा कि वो बाज़ार से सौदा करके कुछ प्रॉफिट कमा कर लाये. नानक देव जी इन पैसों को लेकर जा ही रहे थे कि उन्होंने कुछ भिखारियों और भूखों को देखा, उन्होंने वो पैसे भूखों को खिलाने में खर्च कर दिए और खाली हाथ घर लौट आये. नानक जी की इस हरकत से उनके पिता बहुत गुस्सा हुए, जिसकी सफ़ाई में नानक देव जी ने कहा कि सच्चा लाभ तो सेवा करने में है.

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गुरु नानक देव जी द्वारा शुरू किये गए इस सेवा भाव को उनके बाद के सभी 9 गुरुओं ने बनाये रखा और लंगर जारी रहा. एक कहानी के अनुसार, बादशाह अकबर, लंगर से इतने प्रभावित थे कि एक बार वो खुद लंगर खाने पहुंचे और लोगों के बीच में बैठ कर खाना खाया.

सिखों के तीसरे गुरु अमरदास जी ने यहां तक कहा है कि लंगर में खाये बिना आप ईश्वर तक नहीं पहुंच सकते.

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आज लगभग हर गुरुद्वारे में लंगर लगा कर लोगों की सेवा की जाती है, जिसमें लोग अपनी इच्छा से नि:स्वार्थ भाव से सेवा करते हैं.  

Feature Image Source: Goldentample

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