‘जलती रही मैं तब अपने महबूब के हाथों
बहुत कीमत चुकाई है मैंने तुम इंसानों की ख्वाहिशों की. तुम्हारा होने के लिए सदियों से लहुलुहान हो रही हूं. पर कभी उफ्फ तक नहीं किया. कभी तलवार की धार पर चली हूं. कभी लाशों के अंबार पर. एक के बाद एक ज़ख़्म सहे, मगर तुमसे मोहब्बत करना मैंने कभी नहीं छोड़ा.
याद तो होगा न तुम्हें ’84’ के वो काले धब्बे तुम्हारे चेहरे पर कैसे उभर आए थे. तब तुम्हें लगा था कि मैं इस बदसूरती की वजह से तुमको छोड़कर किसी और की हो जाऊंगी. लेकिन देखो मैं नहीं गई. तुम्हारे साथ रही. शायद गलती की?
गलती! हां. शायद गलती ही थी मेरी जो मैं तुम्हें पहचान न सकी. गलती की जो मैंने तुम्हें अपना महबूब समझा. गलती की जो मैं अब तक ये सोचती रही कि ये सब तू मुझे पाने के लिए कर रहा. मगर तू तो ये सब अपनी ख़ुदग़र्ज़ी के लिए करता आया है. तूने तो मुझे कभी अपना समझा ही नहीं. मैं गैर हूं ये मुझे आज पता चला. लेकिन अब क्या? अब तो सब जल कर राख हो चुका. मेरी उम्मीदें, मेरी ख़्वाहिशें, मेरा इश्क सब.
मुझे निहारते-निहारते तेरी आंखे इतनी पथरा गईं कि मेरे दामन पर हर तरफ से पत्थर उछाल दिए. इनका बोझ अब मुझसे सहा नहीं जा रहा. जिस हुस्न पर मुझे नाज़ था, आज वो तेरे इन पत्थरों से सल्तनी मक़बरे में तब्दील हो गया है. मगर एक सवाल मुझे खाए जा रहा है. क्या मेरे आंचल पर लगाई गई आग की आंच तेरे आंखों में ज़रा भी नहीं चुभी? क्या मुझे जलाकर राख करने के बाद भी तेरी नफ़रत की आग नहीं बुझी? मुझे काटते वक्त क्या तुझे तेरी महबूब की एक बार भी चीख नहीं सुनाई दी?
इन सवालों से मैं परेशान हो गई हूं. मैं तड़प रही हूं. तू समझा तो कमज़र्फ़ क्या मिला मुझे बरबाद कर. आंख मत चुरा, जवाब दे. नहीं है जवाब? हां. नहीं होगा. होगा भी कैसे? तूने तो सिर्फ सवाल करना सीखा है. मुझे अपनी मिल्कियत समझने वाले, तू इस मुल्क पर अपना अख़्तियार समझता है. खाक है तू इस मुल्क का जब तू एक शहरी न हो पाया. जिस शहर में तू पला-बढ़ा, जब तू उसका न हो पाया तो फिर क्या होगा इस मुल्क का. लेकिन जाने से पहले एक बात याद रख. मेरी पीठ पर खंजर भोंकने वाले तेरा हिसाब लिया जाएगा.