1918 में शादी के बारे में दी गई ये सलाह की आज के दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी तब थी

Rashi Sharma

फ़ेमिनिज़्म की लड़ाई आज की नहीं, बहुत पुरानी है. 

ये बात हम ऐसे ही नहीं कर रहे, दुनियाभर की महिलायें बहुत लंबा सफ़र तय कर इस मुक़ाम तक पहुंची हैं और अभी अभी लंबा सफ़र बाकी है. महिलाओं को समान अधिकार दिलाने के लिए 19वीं सदी की शुरुआत में भी एक अभियान चलाया गया था.

ये आंदोलन इतिहास में सबसे उल्लेखनीय नारीवादी आंदोलनों में से एक था, जिसको उस दौरान Suffragettes नाम दिया गया. ये लड़ाई थी महिलाओं के वोट के अधिकार और समाज में लैंगिक समानता दिलाने की.

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स्वाभाविक रूप से, इस आंदोलन में हिस्सा लेने वाली सभी महिलायें निर्भीक और उत्साही थीं. इन सभी महिलाओं के समाज में महिलाओं से जुड़े सभी मुद्दों पर एक से विचार थे. और ये विचार केवल मताधिकार या काम में समानता के लिए ही नहीं, बल्कि शादी से भी जुड़े थे.

1918 के Suffrage आंदोलन की एक ऐतिहासिक पोस्ट आज के दौर में भी प्रासंगिक है. ये पोस्ट उस दौर में महिलाओं को शादी न करने की सलाह देने के लिए थी, जो वर्तमान में इंटरनेट पर वायरल हो रही है. ये पोस्ट इनती ज़रूरी क्यों है, ये जानने के लिए ये पोस्ट पढ़नी ज़रूरी है.

सबसे पहले जानते हैं कि महिलाओं को मतदान का अधिकार दिलाने के लिए ये आंदोलन 19वीं और 20वीं शताब्दी में हुआ था. इस आंदोलन की शुरुआत यूनाइटेड किंगडम में हुई थी क्योंकि वहां के पुरुषों को वोट देने का अधिकार था, पर महिलाओं को नहीं. इस असमानता के कारण दो ग्रुप्स The National Union of Women’s Suffrage Societies और The Women’s Social and Political Union का जन्म हुआ. नारी-मतार्थिनी (Suffragette) शब्द मताधिकार (Suffrage) शब्द से ही लिया गया है, जिसका अर्थ है चुनावों में वोट देने का अधिकार. वास्तव में इस आंदोलन को ये नाम समाचार पत्रों द्वारा इन महिलाओं का मज़ाक उड़ाने के लिए दिया गया था.

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उस वक़्त समाज में पुरुषों के साथ ऐसी महिलायें भी थीं, जो महिलाओं के वोट करने का अधिकार देने के विरोध में थीं, लेकिन इन ग्रुप्स ने इस कैम्पेन को शांतिपपूर्ण तरीके से धरना प्रदर्शन और बैनर्स लगाकर किया था. साल 1900 में नारी-मतार्थिनी (Suffragists) को पर्याप्त गति मिली थी. मतलब इस आंदोलन में लोगों का इतना समर्थन था कि सरकार ने महिलाओं के मताधिकार के समर्थन में कई बिल संसद में पेश किए लेकिन उनको मान्यता नहीं मिली. लेकिन इन बिल्स का पारित होना ही काफ़ी नहीं था. इस हार के बाद महिलाओं के इस ग्रुप ने बड़े स्तर पर प्रदर्शन किया. उन्होंने भूख हड़ताल की, राजा के महल के सामने मार्च किया. कई दिनों की हड़ताल और प्रदर्शन के बाद आख़िरकार 1928 में महिलाओं को वोट डालने का अधिकार मिला.

हाल ही में वेल्स स्थित Pontypridd Museum में प्रदर्शनी के लिए इस आंदोलन के दौरान बना, 1918 का एक पैम्फलेट रखा गया, जो वायरल हो गया. क्योंकि इस पर उन महिलाओं के लिए ज़रूरी सलाह लिखी हुई थी, जो शादी करने वाली हैं या शादी का विचार कर रही हैं.

इस पैम्फ़लेट में जो सलाह दी गई थी, वो मज़बूत ही नहीं, बहुत सशक्त थी, जो कुछ इस प्रकार है:

आज हम इस आंदोलन के बारे में इसलिए बात कर रहे हैं है क्योंकि हमारे देश में अब जाकर महिलाओं के अधिकारों और उनके सम्मान के बारे में यानि कि महिला सशक्तिकरण की बातें हो रहीं हैं. और इन्हीं बातों का परिणाम है कि महिलाओं को कई अधिकार भी मिल गए हैं.

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ब्रिटिशर्स भी अपनी महिलाओं को सम्मान नहीं देते थे. मगर उनकी दोहरी मानसिकता थी कि एक तरफ़ तो वो अपने विज्ञापनों को सेक्सिस्ट बनाने के लिए औरतों से एक्टिंग कराते थे, मगर उनको समान अधिकार नहीं देते थे. और अपने देश में भी 200 साल की गुलामी में ये मानसिकता घर कर गई थी. वरना उस काल में भी महिलायें पढ़ना-लिखना, युद्ध कला सीखना, राज-दरबार में अपने विचार व्यक्त करना, स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेना जैसे सभी काम करती थीं.

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आपकी जानकारी के लिए बता दें कि इंग्लैंड में 1652 में जो पहला कॉफ़ी हाउस खुला था उसमें महिलाओं को कॉफ़ी पीने की अनुमती नहीं थी, वो सिर्फ़ वेटर का काम करती थीं.

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