आप बैठे हो कहीं, लेकिन बावरा मन उड़ते-उड़ते कहीं और पहुंच जाता है. वो एहसास ही अलग होता है. कुछ मिनटों के लिए आज को भूलकर, पुरानी अच्छी यादों की गलियों में पहुंचने का रोमांच ही अलग होता है.
जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, वैसे-वैसे दिन के 24 घंटे कम लगने लगते हैं. किसी दिन सोने का वक़्त कम पड़ जाता है तो किसी दिन कपड़े धोने का. ज़िन्दगी को आसान बनाने की दौड़ में हम इतने उलझ चुके हैं कि हमें ख़्याल ही नहीं रहा कि हमने इसे और उलझा दिया है. माफ़ कीजियेगा ये मेरा निजी अनुभव है, पर पूरी तरह से ग़लत भी नहीं.
फ़्लैट से दफ़्तर और दफ़्तर से फ़्लैट के चक्कर काटते-काटते महीने बीत जाते हैं, घर गए हुए. कई बार तो साल बीत जाते हैं घर का खाना खाए हुए.
घर जाने का उत्साह अलग होता है, कहीं भी जाने का उत्साह अलग होता है. याद है बचपन के वो दिन, जब शहर से गांव तक छुक-छुक करती, सीटी बजाती ट्रेन से होकर जाते थे?
ट्रेन से मेरी कई यादें जुड़ी हैं और मैं पूरे यक़ीन से कह सकती हूं कि आपकी भी रही होंगी. आज ट्रेन से सफ़र की ही कुछ यादें आपके साथ बांटते हैं, थोड़ा हम ख़ुश होते हैं और थोड़ा आप भी मुस्कुरा लीजिये.
1. जब इंटरनेट नहीं था, ये तब की बात है
इंटरनेट तब तक फ़ोन में नहीं पहुंचा होगा. तो ट्रेन के लिए हम वक़्त से कम से कम 2 घंटे पहले पहुंचते थे. प्लेटफ़ॉर्म पर पहुंचकर पता चलता था कि ट्रेन पहले से ही 4 घंटे लेट है. स्टेशन के वेटिंग रूम में सोना मुझे अच्छे से याद है.
2. सीट पर थोड़ी जगह, हमको दे दो ठाकुर!
हम भारतीय मिल-जुलकर हर काम करते हैं. भारतीय रेल में अब टिकट चेकिंग इतनी सख़्त हुई है, पहले तो ये वो गंगा थी जिसमें हर कोई हाथ धो लिया करता था. तो अकसर ऐसा होता था कि आपकी सीट पर आपके अलावा भी एक सज्जन इत्मीनान से यात्रा करते थे ( ऐसा आज भी होता है) .
3. खाने का बड़ा सा बैग
अगर मम्मी साथ में यात्रा कर रही हो, तो खाने का बड़ा सा बैग होना लाज़मी था. मेरी मां पूरी/परांठे और एक सूखी सब्ज़ी रखती थी. घर के मुक़ाबले वो खाना ट्रेन में ज़्यादा टेस्टी लगता था.
4. खिड़की वाली सीट के लिए झगड़े
विंडो सीट कहीं की भी हो, बेस्ट सीट होती है. ट्रेन में भी विंडो सीट के लिए लोग अलग-अलग हथकंडे अपनाते हैं. मेरी छोटी बहन विंडो सीट हथियाने की पुरज़ोर कोशिश करती थी और मैं इस ताक में रहती कि कब वो सोए या बाथरूम जाए. एक बार तो बाबा नाराज़ हो गए थे और ख़ुद जाकर विंडो सीट ले ली.
5. नज़ारे ही नज़ारे
ट्रेन यात्रा यानि नज़ारे ही नज़ारे. हरे-भरे खेतों को देख कर मन को एक अलग शांति मिलती है, अंदरूनी शांति. मुझे याद है नदी पर बने ब्रिज से जब ट्रेन गुज़रती थी, तब एक अलग रोमांच महसूस होता था.
6. खाने-पीने की चीज़ें
मम्मी खाने का भरा बैग लेकर चले तो चले, ट्रेन में पापा से कुछ ख़रीदवा कर खाना तो जैसे रीत थी. भूख नहीं भी हो तब भी. झालमुड़ी, चने, भूने बादाम या फिर ऑरेंज कैंडी..
7. सफ़र के हमसफ़र
सफ़र के दौरान कुछ ऐसे लोग भी ज़रूर मिलते थे, जिनसे हम काफ़ी बातें करते थे. जिनसे न हम पहले कभी नहीं मिले, न फिर कभी मिलने की उम्मीद. पर वो चंद घंटे मौज में कटते थे.
8. लेट ट्रेन और लेट होती हुई
एक बार जो ट्रेन लेट हो गई बहुत कम चांसेस हैं कि वो और लेट न हो. किसी वीरान जगह पर काफ़ी समय से खड़ी ट्रेन, ‘अब चलेगी, तब चलेगी’ वाले फ़ेज़ में होती है पर इसका भी अपना मज़ा है.
9. तरह-तरह के लोग
राजनीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र, धर्म, इतिहास इन सब गंभीर विषयों पर ज्ञान बांटते हुए कई लोग मिल जाते थे. कुछ ऊबाऊ, तो कुछ ज़्यादा ऊबाऊ.
ये थी मेरी यादों के पिटारों से कुछ सुनहरी यादें. आप भी ट्रेन यात्रा से जुड़ी अपनी यादें हमें कमेंट बॉक्स में बता सकते हैं.