‘सांस थमती गई नब्ज़ जमती गईफिर भी बढ़ते कदम को न रुकने दियाकट गये सर हमारे तो कुछ ग़म नहींसर हिमालय का हमने न झुकने दियामरते मरते रहा बांकपन साथियों,अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों…कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों…’
दोस्तों आपने 1964 में रिलीज़ हुई फ़िल्म हक़ीक़त का ये गाना तो सुना ही होगा, और हर साल स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर सुनते ही होंगे. 1962 में हुए भारत और चीन के बीच हुए युद्ध पर आधारित ये फ़िल्म भी ज़रूर देखी होगी. लेकिन शायद आपको ये नहीं पता होगा कि इस युद्ध में अपने प्राणों की कुर्बानी देने वाले कई सैनिकों के साथ-साथ एक जांबाज़ सैनिक ऐसा भी था, जिसे चीनी सैनिकों ने बंधक बना लिया था लेकिन उस वीर ने हार नहीं मानी और बहादुरी के साथ उनका सामना किया. आज हम आपको उस जांबाज़ सिपाही की कहानी बताने जा रहे हैं, जिसने चीनी सैनिकों की आंखों में भी आंसूं ला दिए. इस सिपाही का नाम था सूबेदार जोगिन्दर सिंह जो अपनी जान की परवाह किये बिना हज़ारों चीनी सैनिकों के सामने पहाड़ बन कर खड़ा हो गया लेकिन हार नहीं माना.
जोगिन्दर सिंह का संक्षिप्त जीवन परिचय:
जोगिन्दर सिंह का जन्म 26 सितंबर 1921 को पंजाब में फरीदकोट जिले में मोगा के एक गांव मेहला कलां में एक किसान परिवार में हुआ था. उनका परिवार बहुत समृद्ध नहीं था इसलिए उनकी पढ़ाई भी ठीक से नहीं हो पाई थी. शायद यही वजह थी कि उन्होंने देश की सेना में शामिल होने का फ़ैसला किया. 28 सितंबर, 1936 को वो सिख रेजीमेंट में बतौर सिपाही भर्ती हुए. सेना में भर्ती होने के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की. उसके बाद उनको अपनी यूनिट का एजुकेशन इंस्ट्रक्टर बनाया गया. उनकी शादी सैनी सिख परिवार बीबी गुरदयाल कौर से हुआ था. अपने कार्यकाल के दौरान वो ब्रिटिश इंडियन आर्मी के लिए वे बर्मा जैसे मोर्चो पर लड़े. आज़ादी के बाद 1948 में कश्मीर में पाकिस्तानी कबीलाइयों द्वारा किये गए हमले का सामना करने वाली सिख रेजीमेंट में जोगिन्दर सिंह भी थे.
भारत और चीन के बीच हुए 1962 के युद्ध की कहानी
चीन ने अपनी सैन्य टुकड़ी को बमला इलाके में इकठ्ठा करना शुरू कर दिया क्योंकि बमला से तवांग तक पैदल जाने का एक रास्ता सिर्फ 26 किलोमीटर का था. इस रास्ते पर 3 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में ट्विन पीक्स नाम की एक जगह थी, जहां से चीन की सेना पर नज़र रखी जा सकती थी. वहीं बमला और ट्विन पीक्स के बीच में थी आईबी रिज नाम की जगह, जहां पर तैनात थी भारतीय सेना की पहली सिख बटालियन की कमांडर लेफ्टिनेंट हरीपाल कौशिक की अगुवाई वाली डेल्टा कंपनी की 11वीं प्लाटून, जिसमें केवल 62 से 190 सैनिक ही थे, मगर वो पूरी हिम्मत के साथ चीनी सेना का सामना करने के लिए तैयार थे. इस सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे थे सूबेदार जोगिन्दर सिंह. सूबेदार जोगिन्दर सिंह आईबी रिज में अपनी टुकड़ी के साथ तैनात थे. जोगिन्दर सिंह के नेतृत्व वाली सिखों की इस टुकड़ी को तोपों और गोलाबारी से कवर देने के लिए 7वीं बंगाल माउंटेन बैटरी मौजूद थी.
20 अक्टूबर को करीब सुबह साढ़े पांच बजे चीन की फ़ौज ने टोवांग तक पहुंचने के इरादे से बूमला पर हमला बोल दिया. आपको जानकर हैरानी भी होगी अपने देश की सेना पर गर्व भी कि चीनी फ़ौज ने एक बार नहीं, बल्कि तीन बार इस मोर्चे पर हमला किया. मोर्चे पर हुआ पहला हमला चीन को बहुत भारी पड़ा क्योंकि हिंदुस्तान के बहादुर सिपाही सूबेदार जोगिन्दर सिंह और उनकी टुकड़ी ने उनको खदेड़ दिया और चीन को कोई कामयाबी नहीं मिली. उसका भारी नुकसान भी हुआ और उसके पास पीछे हटने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा.
मगर कहीं सुना था कि दुश्मन एक बार दोबारा हमला ज़रूर करता है, ठीक वैसे ही कुछ ही देर बाद चीनी फ़ौज ने एक फिर से धावा बोला और इस बार भी उसको मुंह की खानी पड़ी. जोगिन्दर सिंह ने ‘जो बोले सो निहाल…’ का नारा लगाते रहे और दुश्मन के छक्के छुड़ाते रहे. मगर दुर्भाग्य ही था कि इस दूसरे हमले में जोगिन्दर सिंह के आधे सैनिकों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. यहां तक कि दुश्मन का सामना करते हुए सूबेदार जोगिन्दर सिंह भी जांघ में गोली लगने के कारण घायल हो चुके थे. मगर फिर भी उनके हौसले बुलंद थे. ज़ख़्मी होने के बावजूद इस वीर सिपाही ने युद्ध का मैदान छोड़ने से साफ़ इंकार कर दिया. उनके इस जज़्बे को देखकर उनके साथियों को भी बल मिला और वो अपनी फ़ौज के साथ मैदान में बहादुरी के साथ डंटे रहे.
कुछ ही देर बाद चीन की ओर से तीसरा हमला हुआ. बस फिर क्या था एक बार फिर ‘जो बोले सो निहाल…’ का नारा लगाते हुए सूबेदार जोगिन्दर सिंह ने खुद हाथ में मशीनगन लेकर चीनी सेना पर गोलियां दागना शुरू कर दिया. हालांकि, काफ़ी नुकसान हो जाने के बाद भी चीन की फ़ौज निरंतर आगे बढ़ती जा रही थी, मगर सूबेदार जोगिंदर सिंह ने हिम्मत नहीं हारी और आक्रमणकारियों को पीछे धकेल दिया. एक स्थिति ऐसी भी आई जब जोगिंदर सिंह के पास कोई हथियार नहीं बचा, तब आला अधिकारियों की तरफ से उनको पीछे हटने को कहा गया. लेकिन सूबेदार और उनके बचे हुए सैनिक अपनी-अपनी बंदूकों पर बेयोनेट यानी चाकू लगाकर, ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ के नारे लगाते हुए चीनी सैनिकों पर टूट पड़े और आगे बढ़ रहे दुश्मन का डटकर सामना किया और कईयों को मार गिराया. मगर चीनी सैनिक आते गए. घायल जोगिन्दर सिंह को चीनी सिपाहियों ने युद्धबंदी बना लिया.
और 23 अक्टूबर, 1962 को पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा बंदी बनाये जाने के कुछ देर बाद ही सूबेदार जोगिंदर सिंह की मृत्यु हो गई और वो शहीद कहलाये. लेकिन चीनी फौजों ने न तो उनका शव भारत को सौंपा, न ही उनकी कोई खबर दी. इस तरह उनकी शहादत अमर हो गई. इस अदम्य साहस से लिए उन्हें मरणोपरांत भारत का सबसे ऊंचा वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र प्रदान किया गया.
जब चीनी आर्मी को पता चला कि सूबेदार सिंह को सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र मिला है तो उनकी नज़रें भी सिंह के सम्मान में झुक गयीं. उसके बाद चीन ने पूरे सैन्य सम्मान के साथ 17 मई 1963 को सूबेदार जोगिंदर सिंह की अस्थियां उनकी बटालियन को सौंप दीं.
वो हमारे देश का दुर्भाग्य ही था कि भारत को इस युद्ध में हार का सामना करना पड़ा और इस मोर्चे पर चीन का कब्ज़ा हो गया. लेकिन अपनी आखिरी सांस तक बहादुर जोगिन्दर सिंह ने उस मोर्चे पर बहादुरी दिखाई. उनकी इस बहादुरी के लिए उनको शत-शत नमन और सलाम.