दिलवालों की दिल्ली… भारत की राजधानी से मैं दो साल पहले मुख़ातिब हुई. ऊंची-ऊंची इमारतों के बीच पलकों पर सपने लिए दौड़ते-भागते लाखों लोग. रोज़ाना ये शहर कुछ अलग ही लगता है, एकदम नई सूरत इख़्तियार कर लेता है.
2 सालों में 2 बार अपना पता बदल चुकी हूं. पता बदलने के साथ ही ज़िन्दगी एक नया मोड़ भी ले लेती है. रोज़मर्रा की चीज़ें बदल जाती हैं, अख़ाबर वाले से लेकर राशन वाले तक, सब बदल जाते हैं. घर बदलने के बाद बदल गया एक और शख़्स.
पिछले मकान में एक 35-40 साल की महिला हमारे अपार्टमेंट से कूड़ा उठाने आती थी. उसकी जगह नए मकान में एक 12-13 साल का बच्चा कूड़ा उठाने आता है.
प्लास्टिक के कट्टे(बोरी) लेकर हर दूसरे दिन मेरी चौखट पर मेरे घर का कूड़ा इकट्ठा करने आता. फिर नीचे रखे ठेले पर उलटता है. मेरे मोहल्ले के कई मकानों से वो हर दूसरे दिन कूड़ा इकट्ठा करता है. उसकी रोज़गारी, फ़्लोर के हिसाब से होती है. नीचे माले का 60, फिर 70, फिर 80…इसी तरह. मुझसे वो महीने के 100 रुपए मांगता है. कायदे से 90 बनते हैं, लेकिन 100. 100 रुपए घर की पूरी गंदगी ढोने और मोहल्ले के कचरा इकट्ठा करने वाली जगह तक ले जाने के.
एक ख़त उसी 12-13 साल के लड़के के नाम,
कैसे हो? बढ़िया न? तुम इसका उत्तर हां में दोगे और कहोगे दो वक़्त की रोटी मिल जाती है. महीने के कुछ हज़ार रुपए. लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आता कि तुम कैसे ठीक हो सकते हो? जिस उम्र में मेरे जैसे बच्चे खेल-कूद, पढ़ाई और धमा-चौकड़ी में बिताते हैं, उसमें तुम कूड़े के ढेर में सपने ढूंढते हो.
मैंने एक बार तुमसे पूछा था, स्कूल नहीं जाते? तुमने कुछ नहीं कहा था. सिर्फ़ मुस्कुराए थे, लेकिन उसके पीछे छिपे दुख को मेरे आंखों ने देख लिया था. पता है, उस दिन के बाद से कई बार सोचा कि तुम्हें एकस्ट्रा रुपए देकर कहूं कि स्कूल में नाम लिखवा लो, लेकिन इस डर से नहीं कहा कि कहीं तुममें कई आशाएं न जग जाएं. ऐसी आशाएं जिन्हें इस समय मैं पूरा करने में असमर्थ हूं.
तुम्हारे पास मोबाईल है, जिसमें तुम फ़ुल वॉल्युम में गाना सुनते हुए कचरा इकट्ठा करते हो. शायद इससे तुम्हारा मन लगा रहता होगा. या पता नहीं कुछ और.
याद है, जब एक बार मैंने तुम्हें कुछ कपड़े देने की पेशकश की थी? तुम चुप रह गए थे. शायद इस कशमकश में थे कि हां कहो या न. उस दिन तुम्हारी खुद्दारी देख कर दिल ख़ुश हो गया था.
एक और बार जब मैंने तुम्हें चिकन और फ़्राइड राइस दिया था, तुमने कुछ नहीं कहा था, लेकिन तुम्हारी आंखों की चमक सब कह रही थी. मेरे घर पर कई लोग आए हैं, बिजली वाला, प्लंबर, पानी वाला, लेकिन जानते हो तुम जैसी ईमानदारी किसी में नहीं. तुमने कभी त्यौहार में भी बखशीश नहीं मांगी. तुमसे 3 गुना ज़्यादा उम्र वाले ऐसा कर चुके हैं.
तुम्हें रोज़ यूं ही देखना अच्छा नहीं लगता. न ही मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकती हूं. मैं ये भी जानती हूं कि तुम्हें भी अपना काम पसंद नहीं, लेकिन तुम शायद अपनी क़िस्मत और हालातों के आगे कुछ नहीं कर सकते हो.
सर्दियों में बिना स्वेटर के ही कचरे इकट्ठा करते हो. तुममें जितनी इच्छाशक्ति है, वो कम ही लोगों में दिखती है.
मुझे दुख है कि मैं तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं कर सकती. बाल मज़दूरी क़ानून के अंतर्गत इस तरह का रोज़गार ग़ैरक़ानूनी है. ये तुम अपनी मर्ज़ी से ही करते हो या मजबूरी में, पता नहीं. लेकिन इस शहर में पढ़ते-लिखते हमउम्रों को देखकर तुम्हें भी अजीब लगता होगा.
अंत में इतना कहना चाहूंगी कि तुम एक अच्छा वर्तमान Deserve करते हो क्योंकि तुम भी इस देश के भविष्य का हिस्सा हो.
अपना ख़्याल रखना
संचिता