बिरसा मुंडा: वो जननायक और स्वतंत्रता सेनानी जिसका नाम सुनते ही थर-थर कांपते थे अंग्रेज़

J P Gupta

बिरसा मुंडा ये नाम सुनते ही ज़ेहन में एक साहसी व्यक्ति की तस्वीर बन जाती है. वो ऐसे जननायक थे जिन्होंने आदिवासियों के हक़ के लिए लड़ाई लड़ी. वो सिर्फ़ आदिवासियों के ही नहीं आम लोगों के भी जननायक हैं. उन्होंने अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ज़ुल्म के ख़िलाफ जमकर अपनी आवाज़ बुलंद की थी. बिरसा मुंडा की कहानी हमें विपरीत परिस्थितियों भी हार न मानने की प्रेरणा देती है.

बिरसा मुंडा को आदिवासी समाज ‘भगवान बिरसा मुंडा’ कहकर आज भी पूजता है. वो 19वीं सदी के प्रमुख आदिवासी जननायक थे. 1857 में इनका जन्म झारखंड के रांची ज़िले के गांव उलीहातू में हुआ था. उनके अधिकतर परिवारवालों ने तब तक ईसाई धर्म अपना लिया था और बचपन में उनकी प्रारंभिक पढ़ाई भी एक मिशनरी स्कूल में हुई.

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यहां उन्होंने देखा कि वो लोग आदिवासी संस्कृति का मज़ाक उड़ाते हैं. इसलिए वो भी उनका मखौल उड़ाने लगे. नतीजन उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया. इसके बाद वो स्वामी आनंद जी के संपर्क में आए. उन्होंने बिरसा को हिंदू धर्म और महाभारत के बारे में विस्तार से ज्ञान दिया. 

उनसे ज्ञान हासिल करने के बाद उन्होंने आदिवासियों को अपने हक़ और अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया. बिरसा ने देखा की जिस जंगल और ज़मीन को आदिवासी मां की तरह पूजते हैं उस पर अंग्रेज़ों ने ज़मीदारों के साथ मिलकर उनका शोषण करना शुरू कर दिया है. ब्रिटिश सरकार ने आदिवासियों के कई अधिकारों का हनन किया था. इसके ख़िलाफ़ बिरसा मुंडा ने मोर्चा खोला.

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उन्होंने “उलगुलान” क्रांति की शुरुआत की. इसका शाब्दिक अर्थ ‘भारी कोलाहल व उथल-पुथल’ है. बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को बताया कि ये उलगुलान सृजन के लिए होगा, शोषण के ख़िलाफ होगा, उनके अधिकारों के लिए होगा, ब्रिटिश और सामंती व्यवस्था के ख़िलाफ होगा. और लोकसत्ता को स्थापित करने के लिए होगा.

फिर बिरसा मुंडा ने अपने लोगों के दो दल बनाए. एक धर्म का प्रचार करता और दूसरा राजनीतिक कार्य करने लगा. उनके द्वारा गठित गोरिल्ला सेना अंग्रेज़ों के ज़ुल्म के ख़िलाफ लड़ती रही और कई मौर्चों पर जीत भी हासिल की. अंग्रेज़ अब बिरसा मुंडा के नाम से खार खाने लगे थे.

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1899 में उनकी सेना ने चक्रधरपुर के थाने पर हमला कर दिया. अंग्रेज़ों की गोलियों और बम के सामने आदिवासियों के तीर कमान टिक नहीं सके. बिरसा के कई साथी मारे गए और उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया. कहते हैं कि उनकी लोकप्रियता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार बहुत डरी हुई थी. इसलिए उन्होंने जेल में ही बिरसा को ज़हर देकर मार डाला और लोगों से कहा कि उनकी मौत हैजे से हो गई.  

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इस तरह उन्होंने आदिववासियों के अधिकारों के लिए लड़ते हुए शहादत दे दी. वो भले ही आज हमारे बीच न हों, लेकिन आदिवासी लोक गीतों और साहित्य में वो आज भी ज़िंदा हैं. उनकी याद में देश की संसद के सेंट्रल हॉल में उनकी एक तस्वीर भी लगाई गई है. यही नहीं रांची के हवाई अड्डे का नाम भी उनके नाम पर ही बिरसा मुंडा हवाई अड्डा कर दिया गया है.

बिरसा मुंडा जी को हमारा शत-शत नमन. 
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