जिनके 30 साल के स्वर्णिम राज में मध्य भारत ने विकास का सूरज देखा, रानी अहिल्याबाई की कहानी याद है?

Sanchita Pathak

भारत के स्वर्णिम इतिहास को बनाने में जितना योगदान भारत मां के पुत्रों का था, उतना ही योगदान भारत मां की पुत्रियों का भी था. इतिहास में झांककर देखने पर पता चलता है कि वेदों की रचना से लेकर, देश में सुशाषण स्थापित करने तक स्त्रियों ने हर दिशा में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई है. रानी दुर्गावती ने मुग़ल बादशाह अकबर की विशाल सेना को झुकने पर मजबूर किया था तो वहीं रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज़ों को नाको चने चबवाए थे.

ऐसी ही एक वीरांगना थीं, अहिल्याबाई होल्कर. अहिल्या बाई का जन्म 31 मई 1725 में, महाराष्ट्र के धानगर गांव के पाटिल, मालकोजी शिंडे के घर हुआ. अहिल्याबाई को स्वंय उनके पिता ने ही शिक्षा दी. गांव की बेटी की किस्मत में तो राजयोग लिखा था.

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पेशवा बाजीराव के करीबी मित्र और सेनानायक मल्हार राव होल्कर, जिन्होंने होल्कर वंश की स्थापना की थी, अहिल्याबाई के गांव से गुज़र रहे थे. 8 वर्षीय अहिल्याबाई को मल्हार राव ने देखा और उन्हें अपने पुत्र खांडे राव के लिये पसंद कर लिया. अहिल्याबाई और खांडेर राव के विवाह के कुछ ही वर्ष बाद, 1754 में कुम्हेर किले के अधिग्रहण युद्ध में खांडेर राव का देहांत हो गया. पुत्र के देहांत से मल्हार राव को गहरा सदमा लगा था.

मल्हार राव ने अहिल्याबाई को राज्य की देखभाल करने के लिए राज़ी किया और स्वंय अपनी पुत्रवधू को प्रशिक्षित किया. राजनीति से लेकर कूटनीति और शस्त्र-शास्त्र मे भी निपुण बनाया. मल्हार राव ने अहिल्याबाई पर पूरा विश्वास किया और अहिल्याबाई ने भी उनका विश्वास नहीं तोड़ा.

इंदौर की बागडोर थामने के बाद भी अहिल्याबाई सादा जीवन जीती थीं. राजमहल में रहने के बजाए उन्होंने नर्मदा नदी के तट पर बने तीर्थ-स्थल ‘माहेश्वर’ में रहना का निर्णय लिया. इतिहास में ऐसे बहुत ही कम राजा हुए हैं जिन्होंने सिंहासन पर बैठने के बाद भी मोह-माया का त्याग कर दिया हो, अहिल्याबाई ऐसी ही एक शासिका थीं. अहिल्याबाई की छत्रछाया में माहेश्वर की दशा और दिशा बदल गई. उन्होंने नर्मदा के तट पर कई मंदिर बनवाए और कई घाटों का निर्माण करवाया. मालवा तक जाने के लिए कई रास्तों का भी निर्माण करवाया गया. 

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माहेश्वर में ही नहीं, देश के बाकि हिस्सों में भी रानी अहिल्याबाई ने कई मंदिर बनवाए. बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर, जिसे औरंगज़ेब ने तोड़ दिया था, उसे भी रानी ने बनवाया, वो भी सोने-चांदी से. देश के कई प्रमुख मंदिरों के निर्माण कार्य में अहिल्याबाई का योगदान था. माहेश्वर केवल आस्था और धर्म का केन्द्र ही नहीं, कला और साहित्य का भी केन्द्र बन गया. कई मराठी कलाकारों और कवियों को रानी ने प्रोत्साहित किया.

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सन् 1766 में सिंहासन, अहिल्याबाई के पुत्र, मालोजी के पास चला गया. मालोजी, एक शौर्यहीन और क्रूड़ राजा साबित हुए. एक प्रचलित लोककथा के अनुसार, मालोजी ने एक स्त्री के साथ दुराचार किया था, अहिल्याबाई ने अपने इकलौते पुत्र को ही मृत्युदंड दे दिया. मालोजी को अपनी आंखों के सामने, हाथी के पैरों से कुचलवा दिया क्योंकि अहिल्याबाई के लिए सत्य और न्याय ही सबसे महत्वपूर्ण थे. बहुत से इतिहासकार इस कहानी को उलट ये कहते हैं कि मालोजी की मृत्यु किसी बीमारी के कारण हुई थी.

बेटे की मृत्यु के बाद, रानी ने पेशवा के पास अर्ज़ी भेजी की उन्हें मालवा की बागडोर संभालने दी जाए. रानी के इस निर्णय का कई सरदारों ने विरोध किया पर सेना उन्हें बहुत मानती थी.

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पेशवा राघोबा को अहिल्याहबाई के ही एक मंत्री ने उकसाया की इंदौर क अपार संपत्ति को हथियाने के लिए उकसाया. अहिल्याबाई ने इसका विरोध किया और कहा कि संपत्ति प्रजा के लिए है. पेशवा को रानी के इस बात से बौखला गए और रानी पर सैन्य कार्रवाई करने का निर्णय लिया. रानी ने भी पेशवा को रणभूमि में ही उत्तर देने का निर्णय लिया. रानी ने स्त्रियों की सेना इकट्ठा की और पेशवा को संदेश भेजा,

‘अब हम आपको बताएंगे कि हम कितने कमज़ोर हैं. अगर हम पुरुषों से युद्ध करते हुए हार भी जाते हैं, तो हमारे पास खोने के लिए कुछ नहीं होगा. पर अगर आप हार जाते हैं, तो आप पूरे संसार में मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे. मेरा विश्वास कीजिए स्थिति कुछ ऐसी ही होगी.’

पेशवा का हृदय परिवर्तन हो गया और उन्होंने रानी को संदेश भेजा,

‘हम युद्ध करने नहीं पर आपके पुत्र की मृत्यु का शोक मनाने आए हूं.’
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पेशवा 1 माह तक रानी के अतिथि बनकर रहे और रानी के प्रशासन को देखकर बहुत प्रभावित हुए.

पेशवा ने अहिल्याबाई की अर्ज़ी स्वीकार कर ली और रानी ने उदारता के रूप में उनका विरोध करने वाले योग्य मंत्रियों और ब्राहम्णों ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर बैठाया.

अहिल्याबाई कभी पर्दा नहीं करती थी और जब भी किसी को ज़रूरत हो वो रानी से बेहिचक मिल सकता था.

त्याग की प्रतिमूर्ति अहिल्याबाई प्रजा को अपनी संतान की तरह ही मानती थीं. विधवाओं के उत्थान के लिए उन्होंन हर संभव प्रयास किया. एक बार जब एक विधवा को बच्चे को गोद लेने से रानी के ही एक मंत्री रोक रहे थे, तो रानी ने स्वंय उस विधवा की सहायता की थी. रानी के राज की सरहदों पर भील और गोंड जनजाति के लोग लूट-पाट करते थे और इस समस्या का हल निकालने में रानी को काफ़ी दिक्कतें आईं. रानी ने उन लोगों को सीमा के आस-पास की ज़मीन दे दी और उनके इलाके से गुज़रने वालों से भी कर वसूल करने की आज्ञा दे दी. इसके बदले में रानी ने उनसे सीमा-सुरक्षा का भार दिया.

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अहिल्याबाई का स्वभाव इतना कोमल था कि सबको उनमें एक माता की ही छाया दिखती थी. रानी की अवस्था में तो आम इंसान, गुस्सैल और क्रूर बन जाएगा. पर रानी का स्वभाव संत जैसा था. किसी भी इतिहासकार ने उनके खिलाफ़ एक भी ऐसी बात नहीं लिखी, जो उनकी वीरता और शौर्य के विपरीत हो. उन्हें तो पुत्र का मोह भी नहीं था. उनकी महानता की एक और कहानी है. एक बार दरबार के कवि ने अहिल्याबाई की प्रशंसा में कविताओं की एक पुस्तक संकलित की, रानी ने किताब को नदी में फेंक दिया था. रानी को अपनी प्रशंसा बिल्कुल पसंद नहीं थी.

30 साल तक राज करने के बाद, 1795 में रानी का देहांत हो गया था. अहिल्या देवी का शासनकाल में इंदौर ने विकास का सूरज देखा. इंदौर ही नहीं, पूरा मध्य-भारत अहिल्याबाई के शासन में ख़ूब फूला और फला. अहिल्याबाई भारत के इतिहास में सबसे कुशल शासकों में से एक हैं

Feature Image Source: News Gram

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