ऑफ़िस की किसी फ़ाइल में दब गई हैं गर्मियों की छुट्टियों की यादें. एक बार फिर से इन्हें ताज़ा कर लो

J P Gupta

गर्मियों की छुट्टियों के वो 60 दिन याद हैं आपको? कि घर और ऑफ़िस के चक्कर में सब भूल बैठे हैं? वही दो महीने जब हमें जी भर के कार्टून देखने, सारा दिन खेलने और मटरगश्ती करने का लाइसेंस मिल जाता था. साल के इन्हीं महीनों में हम इतनी ख़ुशियां और ख़ूबसूरत यादें बटोर लेते थे कि सारा साल निकल जाता था.

उन सुनहरी यादों पर जमीं धूल को थोड़ा हटाते हैं, तो क्यों न एक बार फिर से बचपन के इन्हीं दिनों की सैर की जाए: 

परिवार के दूसरे बच्चों से मिलना

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गर्मियों की छुट्टियों में बुआ, मौसी, चाचा के घर जाना. वहां अपने भाई-बहनों से मिलना होता था. उनके साथ बिताए मस्ती भरे दिन आज भी याद हैं. कैसे हम एक-दूसरे की टांग खींचा करते। उनके साथ स्पेंड किये टाइम की बात ही कुछ और थी.

नदी में नहाना

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हमारे दादा-नाना, दोनों के घर के पास नहर-नदी थी. समर वेकेशन में उनसे मिलने का एक्साइटमेंट और वहां जाकर खेत-खलिहान को पास से देखने का मौका मिलता था. नदी-नहर में सारा दिन नहाते रहने का एक अलग ही मज़ा था.

छत पर पूरे परिवार का एक साथ सोना

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लोड शेडिंग के नाम पर घंटों बिजली काटी जाती थी. ऐसे में परिवार के सभी सदस्य छत पर खुले आसमान के तले चैन की नींद सोते थे. बच्चे अपनी-अपनी फ़ेवरेट जगह पहले ही घेर लेते थे.

दादा-दादी और नाना-नानी के किस्से

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रात को सोने से पहले हर रोज़ दादा-दादी या नाना-नानी से किस्से और कहानियां सुने बिना कोई नहीं सोता था. उनका स्टोरी कहने का अंदाज़ और बीच-बीच में हुंकारी (हूं-हां कहते रहना ताकि उन्हें पता रहे हम उनकी कहानी सुन रहे हैं) भरने की शर्त आज भी याद है.

खेल-खेल में

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रात को सोने से पहले हर रोज़ दादा-दादी या नाना-नानी से किस्से और कहानियां सुने बिना कोई नहीं सोता था. उनका स्टोरी कहने का अंदाज़ और बीच-बीच में हुंकारी (हूं-हां कहते रहना ताकि उन्हें पता रहे हम उनकी कहानी सुन रहे हैं) भरने की शर्त आज भी याद है.

फ़ैमिली ट्रिप

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60 दिनों की इन छुट्टियों में कुछ दिन एक फ़ैमिली ट्रिप के लिए भी रखे जाते थे. कोई किसी हिल स्टेशन जाता तो कोई किसी तीर्थस्थल. ट्रिप कहीं की भी हो, सबके साथ खाते-पीते और मज़े करते सफ़र करना बहुत ही मज़ेदार होता था. उन दिनों कुछ यादें आज भी तस्वीरों के रूप में हमारे घर के किसी कोने में टंगी हैं.

आखिरी के दिनों में अपना होमवर्क निपटाना

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होमवर्क करने की इतनी टेंशन नहीं होती थी. छुट्टियां होते ही बच्चे किताब और कॉपी भूलकर सिर्फ़ और सिर्फ़ इनका पूरा आनंद लेने में बिताते थे. और जब आखिरी के दो-तीन बचते थे, उसमें सारा होमवर्क निपटाते थे.

दोस्तों के साथ कार्टून देखना

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इन दिनों हमें खुली छूट मिलती थी कार्टून देखने की. सारे दोस्त किसी एक के घर चले जाते और घंटों कार्टून देखते थे. अगर कार्टून से बोर हो जाते, तो उनके साथ सांप सीढ़ी, कैरम, शतरंज खेलते थे.

याद आग गए न वो दिन? बस उन्हीं दिनों की यादों में ये आर्टिकल शेयर कर लो.

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