नमाज़ और अज़ान के उलट भी एक जामिया, जहां सांप्रदायिकता का चश्मा लगाकर कभी नहीं पहुंचा जा सकता

Sumit Gaur

हर आम इंसान की तरह ही मेरी सुबह की शुरुआत बिलकुल आम होती है. फ्रेश हो कर एक कप चाय के बाद जिम के लिए निकल जाना बेशक थोड़ा अजीब लगे, पर ये आदत अब बहुत पुरानी हो चुकी है. जिम में वार्मअप कर ही रहा होता हूं कि रोज़ाना एक बंदा मिलता है, जो अकसर एक ही बात करता है कि भइया देश में आतंकवाद की सिर्फ एक ही वजह है मुसलमान.

ऐसे ही अंकल जी ऑफिस जाने के दौरान बस में मिलते हैं. उनकी उम्र देख कर लगता है कि वो अपने जीवन के 50 से ज़्यादा बसन्त तो देख ही चुके हैं. बस में चढ़ते ही उनका भी एक अलाप होता है कि मोदी जी देवता हैं और मुसलमान आतंकवाद की जड़. हालांकि कई बार दोनों लोगों से बहस हो चुकी है, जो हर बार इस पर आकर खत्म हो जाती है कि “तू जामिया से है, उन्होंने तुझे भी अपने जैसा बना लिया है.”

कई बार मैं सोचता हूं कि काश उनकी ये बात सच होती कि मैं जामिया जैसा होता, पर इस बात को मैं अच्छी तरह जानता हूं कि मैं जमिया जैसा नहीं हूं. क्योंकि जामिया तो अपने आप में एक जन्नत है, जो हर किसी के लिए अपनी बाहें खोल देती है. उसके लिए न कोई हिन्दू है और न कोई मुस्लिम. उसके लिए तो हर कोई उसका अपना बच्चा है, जैसे कोई मां अपने बच्चे को 9 महीने पेट में रख कर उसके भविष्य को संजोने में लगी रहती है. ऐसे ही जामिया बच्चों को 3 सालों तक खुद के आंचल में छिपा कर रखता है और उनके सुनहरे भविष्य का निर्माण करता है. पर इन बातों को कभी वो लोग नहीं समझ सकते, जो सांप्रदायिकता का चश्मा लगाए देश भक्ति की बातें करते हैं.

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अब ऐसे लोगों को कौन समझाए कि हिन्दू-मुसलमान से ज़्यादा अहमियत इंसान होने की है. क्योंकि चाहे वो क़ुरान की कोई आयत हो या गीता का श्लोक, हमेशा यही सन्देश देता है कि धर्म की बुनियाद ही प्रेम है. कट्टरता का चश्मा पहन कर आप धर्म को तलाश सकते हैं, पर धर्म में छिपे प्रेम को नहीं.

इस कट्टरवाद के पीछे जितना मीडिया जिम्मेदार है, उतना ही हम. ये हमारी ही कमी है कि हमने चीजों को उस रूप में ग्रहण नहीं किया, जिसमें वो अपनी बात कहना चाहती हैं. बल्कि हमने अपने फायदे के हिसाब से चीजों की एक नई परिभाषा तैयार की है.

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खुद आपके आस-पास भी कई ऐसे लोग होंगे, जो धर्म के ठेकेदार बनते हुए आपको एक बड़ा-सा लेक्चर पेलते होंगे. अगर आप उनकी बात मानते हैं, तो आप समझदार कहे जाते हैं, पर जैसे ही आप तर्कों पर उनकी बातों को तोलने लगते हैं, आप को बेवकूफ के अलावा न जाने क्या-क्या कह दिया जाता है.

बात हिन्दू-मुस्लिम की नहीं, बल्कि ये होती है कि आखिर ऐसे लोग खुद कहां तक पढ़े-लिखे हैं. इसके जवाब में वो लादेन का नाम ले सकते हैं और कहेंगे कि वो खुद एक सिविल इंजीनियर था और अफज़ल गुरु का नाम ले सकते हैं कि वो भी एक डॉक्टर था. पर क्या वो ये भूल गए कि मालेगांव  में जिस ‘अभिनव भारत’ ग्रुप का नाम आया था, वो आर्मी के रिटायर्ड मेजर रमेश उपाध्याय का था. इसके अलावा इस ब्लास्ट की मुख्य आरोपी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर  खुद को एक धर्म गुरु कहती हैं. जो अभी भी कोर्ट से क्लीन चिट का इंतज़ार कर रही हैं. मेरी माता जी बड़ी ही धार्मिक किस्म की हैं, जो अकसर कहती हैं कि “जग भला, तो हम भला.”

पर आज लोगों ने अपनी एक नई परिभाषा तैयार की है कि “अपना भला, तो सबका भला.” इस अपने भले के चक्कर में बेचारे वो नौजवान भी शिकार हो जाते हैं, जिन्हें न दीन की जानकारी है और न ही ईमान की. उनके लिए वही दीन है, जो टेलीविज़न के अलावा सोशल मीडिया में किसी भड़काऊ पोस्ट पर बताया जाता है या किसी अनपढ़ के द्वारा आतंकवाद समझाया जाता है.

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जामिया में रहने की सबसे बड़ी खासियत ये रही कि मैं 50 लोगों से मिला, 50 तरह की बातें सुनी और फिर उन्हीं बातों को लेकर टीचर्स से बहस करने लगा. इन बहसों का फायदा ये हुआ कि बातों को तर्कों के तराजू में तोलने को सीखने को मिला. अब कई लोग ये कह सकते हैं कि जामिया में टीचर भी मुस्लिम हैं, तो उन्होंने वही ज्ञान दिया होगा, जिससे उनके धर्म का फायदा होता होगा. ऐसे लोगों को मैं ये बता दूं कि भले ही मैं जामिया में पढ़ा, मेरे ज़्यादातर दोस्त मुसलमान रहे. पर मैं ऐसे जामिया में था, जहां के डीन से लेकर HOD तक हिन्दू थे. सेक्युलरिज्म की इससे अच्छी मिसाल शायद ही कहीं देखने को मिलती हो.

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बाहर से देखने वालों के लिए जामिया सिर्फ़ मुस्लिम बहुल एक कॉलेज है, जहां हर तरफ़ बुर्खे और कुर्ते-पायजामे का बोलबाला है. पर ये बिलकुल उसी तरह है कि मंदिर में जाये बगैर भगवान के बारे में अंदाज़ा लगा लेना. ये गलत नहीं कि जामिया में कुर्ते-पायजामे और बुर्खों का बोलबाला नहीं, पर ये कुर्ते-पजामे और बुर्खा ही जामिया का कल्चर रहे हैं, जिसे उसने अब तक सम्भाले रखा है. वैसे हर कोई इन्हें पहने ऐसा भी ज़रूरी नहीं, क्योंकि यहां आपको ऐसे भी लोग दिखाई देंगे, जिनके हाथ से लेकर गले तक टैटू बने हुए होंगे.

जामिया की लाइब्रेरी पढ़ने-लिखने वाले लोगों के लिए किसी ख़जाने से कम नहीं. हर कॉलेज की लाइब्रेरी की तरह ही यहां की लाइब्रेरी में भी आपको ऐसे लोग मिल जायेंगे, जो आशिकी का पाठ पढ़ने के चक्कर में आपकी पढ़ाई ज़रूर ख़राब करेंगे. इनके अलावा कुछ ऐसे भी होंगे, जो आशिकी को एक तरफ़ रखकर अपना फ्यूचर बनाने में भी लगे होंगे.

अब आते हैं NTB पर, हालांकि आपके लिए ये बिलकुल नया शब्द है, पर जामिया में पढ़ने वाला हर शख्स इससे अच्छी तरह वाकिफ़ है, क्योंकि ये ही वो जगह है, जहां हर आम कॉलेज की तरह बच्चे धुओं के छल्ले बनाना सीखते हैं.

बात फिर वहीं अटक जाती है कि अब उन लोगों को कौन समझाए कि जो जामिया को सिर्फ उतना ही जानते हैं, जितना कोई सौरमंडल में घूमने वाले अन्य ग्रहों के बारे में जानता है.

अपनी बात खत्म करने से पहले स्वामी विवेकानन्द का वो किस्सा याद आ गया. जब एक आदमी उनके पास आया और उन्हें जम कर गलियां देने लगा, पर स्वामी जी खामोश उसकी बातों पर मुस्कुराते रहे. ये देख कर उनके एक साथी ने कहा कि वो आदमी तुम्हें गालियां दे कर चला गया और तुमने उसे कुछ नहीं कहा? इस पर स्वामी जी ने कहा कि जब मैंने उसकी गालियां ली ही नहीं, तो उसके पास ही रही न. अब उसकी चीजों को मैं क्या जवाब दे सकता हूं. बाकी आप खुद समझदार हैं.

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