आखिर मंदिर में जाने से पहले क्यों उतारने पड़ते हैं जूते और सैंडल, इसके पीछे हैं कुछ ठोस आधार

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सनातन धर्म में मन्दिर प्रांगण को सामूहिक आस्था को प्रकट करने का केंद्र बनाया गया है. व्यक्ति का हित और उसका नुकसान समाज के स्तर पर भी चीज़ों को प्रभावित करता है. समावेशित रूप से किया गया कोई भी कार्य एकता और भाईचारे में भी वृद्धि करता है. आस्था और सामाजिकता के भावों को समेटते हुए सनातन धर्म में सार्वजनिक धार्मिक प्रांगणों के रूप में मन्दिरों का निर्माण करवाना शुरू किया.

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सभ्य समाज की कल्पना को ध्यान में रखते हुए, इन मन्दिरों में जाने और कर्मकांड करने के भी कुछ नियम बनाये गये हैं. इनमें से एक बुनियादी चीज़ है, मन्दिर में बिना जूते और चप्पलों के प्रवेश करना. हम सभी बचपन से ऐसा करते भी आये हैं, जिसका कारण है, हमनें मन्दिर में जाने वाले बाकी लोगों को भी बिना जूते और चप्पलों के जाते देखा है. पर क्या कभी आपने इसके पीछे छुपे किसी ठोस तथ्य और आधार को जानने की कोशिश की? आज हम ऐसे ही कुछ तथ्यों के बारे में जानते हैं, जो इस कर्म के पीछे के आधार हैं.

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जूते और चप्पलों में रज और तम धातुओं की प्रधानता होती है. यह धातु पाताल (नरक) से आने वाली नकारात्मक ऊर्ज़ा को धरातलीय वातावरण में मिलने का आधार प्रदान करते हैं. मन्दिर परिसर में चारों तरफ़ ईश्वरीय प्रभाव के फलस्वरूप सात्विक और चैतन्य वातावरण बना हुआ होता है. ऐसे माहौल में यदि जूते और चप्पल पहनकर जाने लगेंगे, तो पाताल से आने वाली नकारात्मक ऊर्ज़ा इनके माध्यम से धरातल पर आकर यहां के माहौल को दूषित कर देंगी.

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इसके अलावा एक कारण यह भी है कि जूते और चप्पल मन्दिर प्रांगण में ले जाने लगेंगे, तो चारों तरफ़ डस्ट पार्टिकल फ़ैल जायेंगे. इन पार्टिकल्स से भी नकारात्मक ऊर्ज़ा की अधिकता वातावरण में फ़ैल जाती है.

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जब कोई जूते और चप्पल पहने हुए होता है, तो उस समय उस व्यक्ति का मानसिक स्तर एक विशेष प्रकार के एटीट्यूड में होता है. हमारे समाज में इंसान को उसके जूतों से पहचानने का भी सिस्टम रहता आया है. मंदिर के अंदर अमीर-गरीब के फर्क को मिटाने के लिए भी इस प्रथा को बनाया गया है. जूते और चप्पल उतार कर हम एक तरह से अपनी पहचान भी उतार देते हैं और ईश्वर के प्रति अपने आप को समर्पित करने के भाव में सहज हो जाते हैं. 

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मन्दिर का वातावरण सात्विकता के कारण हमेशा शीतल बना रहता है. जब हम नंगे पांव मन्दिर प्रांगण में जाते है, तो उस ठंडक को पैरों के माध्यम से पूरे शरीर में महसूस कर सकते हैं. इससे तन और मन दोनों में शीतलता आती है.

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शास्त्रों में बताये गये इन सभी आधारों की वजह से मन्दिरों में जूते और चप्पल पहन कर जाना वर्जित किया गया है. वैसे भी बिना जूते और चप्पल के हमारा मन शान्ति और वातावरण के साथ अपनेपन का भाव महसूस करता है. 

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